आम शहर या गाँव-क़स्बे में एकाध किलोमीटर ऐसी सड़क, पक्की या कच्ची, नहीं होती कि कोई शरीफ आदमी सुबह टहलकर स्वास्थ्य-लाभ कर सके। या तो क़दम-कदम पर गड्ढे या मैनहोल मिलेंगे, या कोई साँड़ फुफकारता हुआ रास्ता रोके खड़ा होगा। आप सोच ही रहे हों कि किधर से निकलें तभी या तो किसी कोने से कोई कुत्ता लपकता-दौड़ता आपके टखनों पर आ धमकेगा या कोई शोहदा दहेज़ में मिली मोटरसाईकिल को लहराता हुआ आपके ठीक बगल से ऐसे निकलेगा मानों आपके कान में कुछ कहना रह गया हो। कोई ढंग का पार्क क़स्बे में कभी रहा भी हो तो अब तक कचरे के पहाड़ में तब्दील हो गया होगा या पी डब्लू डी वालों ने घेर-घार कर ईंट, गिट्टी, रेत का गोदाम बना डाला होगा।
ऐसे पार्क-वंचित समाज के प्रातभ्रमण प्रेमियों के लिये रेलवे प्लेटफार्म से ज़्यादा शांत और सुकून देने वाली जगह क्या हो सकती है? कोई पौन या एक किलोमीटर की अबाध सीधी पगडंडी जिसपर ना आवारा मवेशियों से टकराने का खतरा, ना ही कोई गाड़ी-सवारी से दबने का डर। हॉं, कभी-कभी जेब कटने का अंदेशा ज़रूर बना रहता है। प्लेटफार्म पर टहलते-टहलते थक गये तो किसी बेंच पर बैठकर सुस्ता लिया। तलब हुई तो चाय-चबेने की भी व्यवस्था रहती है। कभी बड़े शौक पूरे करने हों तो ब्रेड-ऑमलेट या पूरी सब्ज़ी भी गपक ली जाती; घर पहुँचकर श्रीमती जी से बोल देते कि आज डायटिंग करने का इरादा है।
कुल मिलाकर कहें तो रेलवे प्लेटफ़ॉर्म बड़ी नियामत है। साइकिल उठाई, स्टेशन पहुँचे, साईकिल स्टैंड पर साईकिल खड़ी कर टोकन लिया, और चल पड़े मॉर्निंग वाक पर। वही पुराना प्लेटफ़ॉर्म, उन्हीं पुराने कुलियों और खोमचे वालों से सलाम-दुआ, बुकस्टॉल पर खड़े-खड़े अख़बारों की हेडलाइनों पर सरसरी निगाह डाली, मूड हुआ तो एक कुल्हड़ चाय सुड़क ली। अब तो प्लेटफ़ॉर्म टिकट भी कोई नहीं पूछता, उल्टे कभी माल बाबू तो कभी स्टेशन मास्टर चाय पूछ लेते हैं। यह सब करते हुए प्लेटफ़ॉर्म पर तीन-चार बार अप-डाउन करते, और इसके पहले कि डेली पैसिंजरों की भीड़-भाड़ शुरू हो, आपका मॉर्निंग वॉक पूरा। साईकिल स्टैंड वाले को अठन्नी पकड़ाई और चल पड़े वापस बाक़ी की दिनचर्या के पालन के लिये।
पर कुल-जमा एक अठन्नी में जो प्रातभ्रमण का आनंद मैंने वर्षों उठाया, वह रेलवे विभाग को फूटी आँखों नहीं सुहाया। कुछ दिन पहले दिनभर की आठ आने वाली साईकिल पार्किंग का रेट बढ़ाकर पचास रुपये प्रति घंटा कर दिया है। अब टहलने और चाय, अख़बार में डेढ़ घंटा भी निकला तो ठेकेदार हलक में हाथ डालकर सौ रुपये निकाल लेता है। सुना है मोटरसाईकिल का रेट तो सौ रुपये घंटा है। अच्छा हुआ जो मोटरसाईकिल कभी नसीब में ही नहीं रही। कभी-कभार साईकिल स्टेशन पर लगाकर सुबह की रेलगाड़ी से महानगर के बड़े दफ़्तर भी हो आता था। शाम को लौटा और अठन्नी चुकाकर घर पहुँच गया। कल अचानक कम्बख़्त ने आठ घंटे के चार सौ झटक लिये। हील-हुज्जत करने पर बोला कि रेट बढ़ गये हैं। अब आप ही बताएँ कि ऐसे पार्किंग चार्ज का क्या औचित्य जिसपर तीन-चार दिन के खर्चे पर नई साईकिल ही आ जाए? अरे पार्किंग है कि रामनगर के डाकुओं का अड्डा?
एक बार दो दिनों के लिये कहीं जाना पड़ गया। लौटकर साईकिल लेने गया तो ठेकेदार ने अड़तालीस घंटे के लिये चौबीस सौ रुपये की पर्ची थमा दी। मैंने कहा कि भाई तू मेरी साईकिल ही रख ले, वैसे भी पुरानी हो गई है। इतने में तो मैं नई साईकिल ले लूँगा। ठेकेदार आग बबूला हो गया। बोला ऐसा कर-कर के मेरे पास डेढ़ हजार साइकिलें इकट्ठी हो गई हैं। आप तो बस पैसे भरो और अपनी खटारा साईकिल ले जाओ। खैर मैंने कुछ बहाना बनाया कि इतने रुपये तो जेब में नहीं हैं, घर से लेकर आता हूँ। तो ठेकेदार बोला आने जाने में एक घंटा और लग जाएगा, फिर पूरे साढ़े चौबीस सौ लेकर आना। मैं तो यह जा और वह जा। फिर कभी साईकिल स्टैंड का रुख़ नहीं किया। मॉर्निंग वाक का क्या? अब ऑटो से आता-जाता हूँ, फिर भी पार्किंग से सस्ता पड़ता है।
धन्य हो रेल विभाग!
—-ooo—-

Did not know this was also utilisation of Rly Platform ! Never heard so nor got any complaint of this type during working in Rlys. But yes , in Banaras , stray Bulls strolling on PF were seen sometimes !
ReplyDeleteOm Prakash Chaube
ReplyDeleteNice factual
ReplyDeleteIt's a common practice to use malls for evening walks.
ReplyDelete