सचिवालय में अधिकारियों द्वारा घंटी बजाकर चपरासी को बुलाने पर रोक लगा दी गई है। शीघ्र ही सभी सरकारी दफ्तरों में यह व्यवस्था लागू होगी। जानकारों का कहना है कि ऐसा कदम उठाने से अंग्रेज-शासन के दौर से चली आ रही सामंती प्रथाओं की आख़िरी निशानी भी कब्रदोज हो जायेगी। भला यह भी कोई बात हुई कि इधर साहब ने घंटी का बटन दबाया और दरवाज़े पर झट सेवक हाज़िर?
परंतु हर आधे-अधूरे नीति निर्धारण की तरह सत्ता के घंटीविहीन गलियारों की परिकल्पना ने घंटी उद्योग पर जो आघात किया है, उसकी भरपाई कौन करेगा? यही तो एक सेक्टर था जिसमें उत्पादक और उपभोक्ता दोनों स्वदेशी थे। अब चूँकि किसी और देश में तो भारत जैसी अफ़सरशाही नुमायाँ नहीं होती जो निर्यात पर निर्भर हुआ जाये। जिस उद्योग ने देश की तरक़्क़ी में सचिवालयों के साथ कदम से कदम मिलाकर योगदान दिया है, उसे सरकार ने औचक ही बिना पतवार मँझधार में छोड़ दिया, और नाव की तली में छेद और कर डाला।
पुराने जमाने में अंग्रेज साहब की टेबुल पर पीतल की एक घंटी होती थी, जिसकी ऊपर की घुंडी दबाने पर मीठी टुन-टुन की आवाज़ होती थी। सुनकर लाल साफ़े, नक्काशीदार लाल पट्टी, और चमचमाते पीतल की बकलस वाली पेटी बाँधे एक सजा-धजा अर्दली हाज़िर हो जाता था। अब चूँकि घंटी टेबुल पर ही बजती थी इसलिये साहब को ज़ोर से सुनाई देती थी, और अर्दली को हल्की। इस कारण साहब के बार-बार घंटी बजाने पर एक स्व-सीमित, अर्थात् सेल्फ़-लिमिटिंग, सीमा लगी रहती। फिर बिजली का आविष्कार हुआ और घंटी उद्योग के आविष्कारकों ने तुरंत बिजली की घंटी का ईजाद कर डाला। उनमें से कई तो अब यूनिकॉर्न बने घूम रहे है।
साहब में घंटी का बजने वाला यंत्र बाहर टंगवा दिया और बटन अपनी मेज़ पर फ़िक्स करवा दिया। अब घंटी से मीठी टुन-टुन की आवाज़ की बाध्यता समाप्त हो गई। बिजली की घंटी अब घोर कर्कशा हो गई और बटन दबाते ही ट्रिं……..ग की आवाज़ निकालने लगी ताकि ऊँघता, गप्प लड़ाता, या इधर-उधर चकल्लसबाजी करता चपरासी भी बहाने नहीं बना सकता कि साहब, घंटी की आवाज़ सुनाई नहीं दी। अब चूँकि सत्ता तो सचिवालय के गलियारों में बसती है, और हर गलियारे में अनेक साहब लोग विराजते हैं, इसलिये जब ज़ोर की ट्रिंग-ट्रिंग चारों ओर से होने लगी तो चपरासी लोग कन्फ्यूज होने लगे कि किसके साहब की घंटी बजी। कभी-कभी तो कोई कामचोर चपरासी दूसरे वाले को बोल देता कि ये तुम्हारे साहब की है।
साहब लोगों में भी अब मनमुटाव रहने लगा कि उसकी घंटी मेरी घंटी से ज़्यादा ज़ोरदार क्यों। कुछ वर्ष गुजरे, फिर सरकार ने एक घंटी प्रोटोकॉल जारी कर दिया जिसमें निर्धारित किया गया कि किस स्तर के अधिकारी की घंटी कितने डेसिबेल की होगी। घंटी उद्योग ने आनन-फ़ानन में अलग-अलग डेसिबेल की घंटियों की डिज़ाइन तैयार कर ली। उल्लंघन करने वाले अधिकारी से जवाब-तलब का प्रोफॉर्मा बनाया गया; यह भी लिखा गया कि तीन बार से ज़्यादा उल्लंघन करने पर अधिकारी की बिजली की घंटी काट ली जायेगी और उसे टेबुल वाली घंटी ईश्यू कर दी जायेगी। इस प्रोटोकॉल के अनुपालन के लिये हर मंत्रालय में एक उपनिदेशक(घंटी) का पद स्वीकृत किया गया। उसे भी एक चपरासी और एक अदद बिजली की घंटी मुहैया कराई गई। इस प्रकार घंटी उद्योग ने सरकार के कदम से कदम मिलाकर उच्च-टेक्नॉलॉजी और मेक इन इंडिया का स्वप्न सार्थक किया, साथ ही सरकार में रोज़गार के नये अवसर भी पैदा किये।
इस नये प्रोटोकॉल को प्रभावी तौर पर लागू करने में बड़ी अड़चन यह रही कि डेसिबेल नापने और डेसिबेल मापक यंत्र का प्रोटोकॉल समय पर नहीं बन पाया। फिर कैबिनेट की एक अभूतपूर्व मीटिंग बुलाई गई, जिसमें घंटी उत्पादक चैम्बर ऑफ कॉमर्स के प्रतिनिधि भी आमंत्रित थे। अब तक भारतीय घंटी उद्योग सफलता की ऊँचाइयॉं छूने लगा था। उसके प्रतिनिधि ने एक हाई-टेक प्रस्ताव रखा कि अब जबकि विज्ञान तरक्की कर रहा है, वे अलग-अलग डेसिबेल की बजाय अलग-अलग ट्यून की घंटियाँ बनाने जा रहे हैं। सरकार अचंभित थी, पर बहुमत से प्रस्ताव पारित कर एक ट्रायल ऑर्डर दे दिया गया।
जब घंटियों की सप्लाई हुई तो सारे संसार में चर्चा हुई। किसी घंटी से फ़िल्मी गाने की धुन आ रही थी, तो किसी से ग़ज़ल की। कोई भजन सुनकर मगन था, कोई वेद की ऋचाएँ, कोई क़ुरान शरीफ़ की आयतें सुनकर अभिभूत हुआ जाता था, और कोई जिंगल बेल्स पर थिरक रहा था। चपरासी लोग भी अब जानने लगे कि जगजीत सिंह के ग़ज़लों वाली घंटी किसकी है और रामधुन वाली किसकी। संगीत की नयी परम्परा, घंटी घराना, अब आना ही चाहती थी तभी घंटी की परंपरा ही समाप्त कर दी गई। राष्ट्र निर्माण में सतत-सहयोगी, अधिकारियों और अर्दलियों के टीम-बिल्डर, संगीत की नई विधा के सर्जक घंटी उद्योग की एक नहीं सुनी गई। अब साहब लोगों को, चपरासियों को, गलियारों से गुजरते आम आदमी को भगवद्भजन के लिये क्या रोज़ सुबह-शाम मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे का रुख़ करना पड़ेगा? क्या यही धर्मनिरपेक्षता है? नयी पीढ़ी के अधिकारी धुनें सुनने-गुनगुनाने के लिये क्या अब सिनेमाघरों और संगीत मंडलियों के द्वार खड़े होंगे? क्या यही भारतीय संस्कृति है? यह सारा मनोरंजन और पुण्य-अर्जन जो घंटियों की धुनों में सहज ही उपलब्ध था, अब समाजवाद की वेदी चढ़ गया।
कहते हैं जो होता है, अच्छा ही होता है। अब साइलेंट वैली की तर्ज़ पर सचिवालयों में साइलेंट कॉरिडोर हुआ करेंगे। साहब लोग तो चाय मंगाने का कोई-न-कोई रास्ता निकाल ही लेंगे। नुक़सान तो घंटी कारोबार का हुआ।
(अस्वीकरण: इस कथानक का सरकार की उस योजना से कोई लेना-देना नहीं है जिसके तहत मोटर गाड़ी के हॉर्न से तबले, ढोलक, या सारंगी की आवाज़ निकालने का आदेश जारी हुआ है। बल्कि लेखक तो प्रार्थना करता है कि हॉर्न-उद्योग दिन-दूनी, रात-चौगुनी तरक़्क़ी करे ताकि शादी-ब्याह में गाड़ियों हॉर्न बजने मात्र से ही उत्सव का भान हो और बैंड-बाजे का खर्चा बचे)
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