आपने सरकारी साहबों के तामझाम के क़िस्से तो सुने ही होंगे। उनके टेबल पर लगी घंटी का साहब की शान में बड़ा योगदान होता है। बड़े साहब अपने सिंहासन पर विराजते ही सबसे पहले घंटी टुनटनाते हैं। तुरंत लाल कलगी लगाए और पीतल के बकलस-वाले कमरबंद में साफ़ क़मीज़ खोंसता हुआ अर्दली हाजिर होता है।
साहब दबंग आवाज़ में, जो बंगले पर अमूमन दबी ही रहती है, एक साथ कई आदेश दे डालते हैं, “आज का डाक पैड कहाँ है, पंखा तेज़ करो, एसी ठंढा करो, ये ग्लास में पानी कल का है क्या, बड़े बाबू आ गये हों तो बोलो मैंने याद किया है, ग्यारह बजे मीटिंग है चाय बिस्कुट का इंतज़ाम ठीक रखना,” वगैरह-वगैरह। अभी चपरासी अपनी धुरी पर घूमकर बाहर निकलने ही वाला होता है कि साहब फिर घंटी का बटन दबा डालते हैं, हालाँकि चपरासी वहीं खड़ा था। पर वह भी कोई साहब है जो बोलने की ज़हमत उठाए? बेचारा चपरासी पूरा वृत्तीय घूर्णन कर ज़ोर से बोलता है, “हुज़ूर?” साहब बोलते हैं, “अरे कालूराम, अभी तुम यहीं हो? पीए साहब को बोलो कल वाले पत्र का ड्राफ्ट लेकर फौरन आएँ।” कालूराम साहब के मुखारविंद से अपना नाम सुनकर प्रसन्न हो जाता है और क्षणभर को ठिठकता है। “क्या हुआ, खड़े क्यों हो? जल्दी जाओ,” साहब गरजते हैं। कालूराम अपने चपरासित्व को पुन: पहचानकर झटपट भाग लेता है।
मैंने भी कमोबेश साहबियत के मजे लिये हैं। घंटी टुनटुनाकर मानों जिन्न को प्रकट करने का आनंद भी उठाया है। पर जैसा कि हमारे शास्त्त्रों में लिखा है, हर प्राणी को अपने कर्मों का फल इसी जीवन में, और बिना नागा, इसी धरती पर भोगना पड़ता है। सो मित्रों, मेरे प्रायश्चित और दंडप्राप्ति के दिन रिटायरमेंट के साथ ही आ गये। सोचा था कि सरकारी बंगले से निजी मकान में आने पर स्थायित्व मिलेगा, चैन की बंसी बजाऊँगा। क्या पता था कि प्रारब्ध मेरे द्वारा कालूराम को बुलानेवाली एक-एक घंटी का हिसाब लेगा।
सुबह उठते ही, इसके पहले कि हाथ-पैर सीधे कर लूँ, अख़बार वाला घंटी बजा देता है। कभी-कभी तो उसकी घंटी से ही नींद खुल जाती है। कितनी बार उसे समझाया, मिन्नतें कीं, कि भाई तू अख़बार डाल कर चला जा, हम उठाकर पढ़ लेंगे, घंटी क्यों बजाता है? वह बोलता है कि सर मैं तो आपके फ़ायदे के लिये ही घंटी बजाता हूँ, देर होने से कहीं कोई कुत्ता न उठा ले जाये। पर मुझे यकीन है कि हो न हो ये अख़बारवाला पिछले जन्म में कालूराम का पिता रहा होगा, जो अपने चपरासी पुत्र पर मेरे द्वारा किये गये अत्याचारों का बदला लेने के लिये ही पैदा हुआ है। साहब की कुर्सी पर बैठकर तो मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं कालूराम पर कोई अत्याचार कर रहा हूँ। पर अब महसूस होने लगा है कि घंटी की दूसरी ओर होना घोर नर्क ही है।
फिर पत्नी द्वारा नियुक्त तीन महरियाँ, यानी कि मेड, एक-एक कर घंटी बजाती हैं - एक झाड़ू-पोंछे वाली, एक बर्तनवाली, और एक खाना बनानेवाली। तंग आकर मैंने सोचा कि इन सारे घरेलू कामों का ज़िम्मा मैं ही ले लूँ, कम-से-कम दौड़-दौड़ कर दरवाज़ा खोलने से तो मुक्ति मिलेगी। पर धर्मपत्नी ने मना कर दिया, मेरे प्रति किसी प्रेम या आदर से नहीं, बल्कि यह सोचकर कि मुहल्ले में बदनामी होगी। फिर मैंने पत्नी से कहा कि मैडम, आपकी सेवादार हैं ये सारी मेड, आप ही दरवाज़ा खोला करो। मैडम बिल्कुल भड़क गईं। बोलीं दिनभर पलंग तोड़ते हो, ना दफ़्तर जाना, ना कोई कसरत करना, अब दरवाज़ा खोलना भी तुम्हें नागवार गुज़रता है? मैंने मन-ही-मन कालूराम से क्षमा माँगी और कर्त्तव्यरत हो गया। फिर, अमेजन वाले की घंटी, ब्लिंकिट वाले की, बिग-बास्केट वाले की, दूधवाले की, कार धोनेवाले की, धोबी की दो बार, बख़्शीश माँगने वालों की, सोसाइटी का नोटिस लेकर आने वाले की। कभी-कभी तो मन करता है कि सरकार को लिखूँ कि मुझे वापस काम पर बुला ले, बिना तनख़्वाह के भी मंज़ूर है; इस मुई घंटी से तो निजात मिलेगा।
एकबार तो हद हो गई। दोपहर को घंटी बजी। एक नौजवान खड़ा था, “अंकल, आपके पड़ोसी नहीं हैं क्या?” मैंने कहा, “उनकी घंटी बजाओ, मेरी क्यों बजाई?” नौजवान बोला, “बजाई थी, पर दरवाज़ा नहीं खुला।” मैंने कहा कि मोबाईल पर कोशिश करो। युवक बोला, “कर चुका हूँ, अंकल, पर कोई जवाब नहीं मिल रहा।”
अबतक मैं खीझ चुका था। मैंने कहा, “कहीं सिधार तो नहीं गये? चलो पुलिस को बुलाते हैं। वही दरवाज़ा तोड़े तो कुछ पता चलेगा।” नवयुवक भड़क गया। बोला, “कैसी बात करते हैं, अंकल। ये मेरे ताऊ जी का फ़्लैट है। वे लोग कुंभ मेला जाने वाले थे। शायद वहीं गये हों।” अबतक मैं बुरी तरह झुँझला गया था और बोला, “बरखुरदार, जब तुम्हारे पास सभी सवालों के जवाब हैं, तो मेरी घंटी बजाकर मुझे क्यों तंग कर रहे हो?”
युवक बोला, “सो तो है, अंकल। पर क्या ताऊ जी ने आपको बताया कि वे कुंभ से लौटेंगे?” मैंने ग़ुस्सा पीकर, गंभीर होते हुए कहा, “बेटा, कैसे बताऊँ? कई बार तो लोग कुंभ से लौट ही नहीं पाते - या तो मोक्ष प्राप्त कर वहीं से वैकुंठधाम का रुख़ करते हैं या साठ के दशक के फ़िल्मों की तरह गुम हो जाते हैं, फिर कहीं स्मग्लिंग करते या रिक्शा चलाते हुए पाए जाते हैं। तुम्हारे ताऊ जी हैं, तुम्हीं सम्हालो, बस मेरी घंटी ना बजाना।” युवक पैर पटकता हुआ चला गया।
महीनों घंटी-सेवा में गुज़ारने के बाद मैंने नियति से समझौता कर लिया है। ज़िंदगी अब ऐसे ही कटेगी - घंटी की आवाज़ सुनो और दौड़कर दरवाजा खोलो, ठीक वैसे ही जैसे कालूराम करता था। यदि आप सरकारी साहब हैं तो झटपट अपने टेबल से घंटी का बटन हटवा दीजिये क्योंकि कर्म किसी को नहीं छोड़ता। यदि मेरी तरह घंटी बजाने का पाप करते हुए रिटायर हो चुके हैं, तो चलिये कल सुबह से लंबी मॉर्निंग वॉक पर निकलते हैं। श्रीमती जी घंटी देख लेंगी, फिर आपको।
—-ooo—-
जबरदस्त
ReplyDeleteLoved the subtle humour 💕 .. please don’t blame the karma 😊.
ReplyDeleteWe never had “Kalu Ram” (sic 😜) & yet experience the similar predicament of responding to the every day . Best solution is to connect bell 🔔 to your romantic 💕 song 🎵 which reminds you of your crushes in life 😈🤣🤣
Exteaordinary!! Enjoying and thinking should I remove this bell for ever, as I too am going to retire in 2 weeks time. Or should I take this opportunity to remain active/agile?
ReplyDeleteHilarious, the reality in comedy 🤣
ReplyDeleteROFL!
ReplyDelete