पंडित वीरभद्र मिश्र जी वाराणसी स्थित संकट मोचन मंदिर के प्रधान महंत थे। अब वैकुंठवास करते हैं। मेरे वाराणसी पदस्थापन के दौरान उनसे जान-पहचान हो गयी थी, और मैं उनके तुलसी घाट पर बने घर में अक्सर जाया करता था। प्रात: नौ-दस बजे के बाद जाने पर मंदिर से आए प्रसाद का आनंद मिलता था - हलवा और सुस्वादु मिठाइयां। महंत जी बड़े प्रेम से बातें करते और तुलसीदास जी के बारे में बताते। उनके साथ बिताया गया हर क्षण प्रेरक और ऊर्जादायक होता था।
वीरभद्र मिश्र जी तुलसीदास जी के वंशज थे, और चूँकि संकट मोचन मंदिर की स्थापना गोस्वामी जी ने ही की थी, अत: मंदिर का महंत पद उन्हें नैसर्गिक रूप से उत्तराधिकार में मिला था। महंत जी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के विभागाध्यक्ष थे और पठन-अध्यापन के साथ अन्य समाजिक कार्यों में भाग लेते थे। उनके मकान में ही रहकर, या कहें कि उनके वर्त्तमान मकान के स्थल पर रहते हुए ही तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना की थी। वहाँ तुलसीदास जी की नाव और उनकी खड़ाऊँ के कुछ टूटे-फूटे अवशेष भी जतन पूर्वक संजोकर रखे थे।
महंत वीरभद्र मिश्र जी ने अपने सिविल इंजीनियरिंग और हाईड्रॉलिक्स के ज्ञान का उपयोग कर, स्वच्छ-गंगा अभियान के तहत, वाराणसी शहर के मल-जल (सीवेज) के निस्तारण का एक प्लान बनाया था, जिसमें ज़्यादातर बहाव बिना बिजली के पंपों से गुरुत्वाकर्षण से ही हो सकता था। सरकार को उनकी योजना पसंद नहीं आई क्योंकि वह कम खर्च वाली थी। बड़े एस्टीमेट और टेंडरों के आकर्षण के कारण वीरभद्र मिश्र जी की योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। लेकिन उनकी इस उत्तम योजना और गंगा जी की सफ़ाई में उनके अन्य प्रयासों के कारण अमेरिका की टाईम मैगज़ीन ने उन्हें “सेवेन हीरोज ऑफ द प्लैनेट” की सूची में डालकर सत्कार किया - विश्व भर के पर्यावरण-संरक्षण के सात महानायकों में एक।
एक दिन चर्चा के दौरान महंत जी मुझसे बोले, “शुभ्रांशु जी, क्या आप जानते हैं कि भारत में पहला मास-मीडिया कैंपेन कब और किसने किया था?” मैंने कई नाम लिये - गांधी जी, नेता जी सुभाष चंद्र बोस, और हिटलर के भाषणों का उल्लेख किया। फिर प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार, अख़बार, रेडियो, लाउडस्पीकर इत्यादि के प्रभाव की बातें की। महंत जी सुनते रहे।
जब मेरी सूचियाँ पूरी हो गईं तो महंत जी बोले, “सबसे पहले मास-मीडिया की आवश्यकता और उसके प्रभाव को गोस्वामी तुलसीदास जी ने पहचाना था। फिर उन्होंने रामलीला की संकल्पना की ताकि रामकथा का प्रचार-प्रसार दूर-दूर तक हो सके।” यह एक सशक्त तर्क और विचार था। हमलोगों की चर्चा आगे बढ़ी। तुलसीदास जी रामचरितमानस की रचना कर रहे थे, या पूरी कर चुके थे। उनके पहले रामकथा मुख्यत: वाल्मीकि-रचित संस्कृत में ही प्रामाणिक मानी जाती थी। कुछ संस्कृत के जानकार ही मंदिरों में या मंडलियों में उसे लोक भाषा में सुनाते थे। कुल मिलाकर सनातन के मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम की कथा शताब्दियों और पीढ़ियों से छोटे समूहों में सिर्फ़ बोली और सुनी जाती रही थी। तुलसीदास जी की अवधी में लिखी रामकथा साधारण पढ़े-लिखे भक्तों के लिये सुपाठ्य हो गई। पर तब तक प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार नहीं हुआ था। रामचरितमानस की प्रतियाँ बड़ी मेहनत से कुछ ब्राह्मण और गुरुकुलों के छात्र बना पाते थे। फिर प्रतियों से प्रतियाँ बनती थीं पर हस्तलेखन से रामकथा का कितना प्रचार-प्रसार हो सकता था? यवनों-मुगलों का आतंक बढ़ता जा रहा था और सनातन धर्म के मूलाधार, भगवान राम, में जनमानस की आस्था को वृहत स्तर पर प्रचारित करना आवश्यक होता जा रहा था।
तुलसीदास जी ने रामलीलाओं का आयोजन शुरू किया। दशहरे वाली रामनवमी के नौ-दस दिन रामकथा के मुख्य अध्यायों को नाटक के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। कालांतर में तुलसीदास जी के शिष्यों के द्वारा देश भर में रामलीला के आयोजन शुरु हुए। भारत में नाट्यशास्त्र का जो प्राचीन शिल्प रहा है, उसे भी नया जीवन मिला। बच्चों, युवाओं, प्रौढ़ों, और फिर स्त्रियों ने रामकथा के पात्रों को अपनी नाट्यकला और उत्साह से चित्रित किया। किसी गाँव में यदि रामलीला का आयोजन होता तो आसपास के गाँवों से लोग बड़ी संख्या में सपरिवार, बैलगाड़ियों से या पैदल, अपने दस दिनों के प्रवास, भोजन इत्यादि की व्यवस्था करके वहाँ पहुँचते और एक मेला सा लगा रहता। रामलीला आमतौर पर रात में ही “खेली” जाती, पर दिन भर साधु-संतों और विद्वानों की चर्चा और प्रवचन चलते रहते। लोग आपस में यवनों के खतरे और फिर आपस की एकजुटता और धर्म में आस्था आदि के लाभों पर विचार-विमर्श करते। रामकथा अब हर व्यक्ति के लिये सजीव हो चुकी थी। सनातन धर्म जो उखड़ चला था, तुलसीदास जी के मास-मीडिया कैंपेन के कारण फिर अपनी जड़ें मजबूत कर रहा था।
पंडित वीरभद्र मिश्र जी के अपने प्रयासों की चर्चा भी होती रहती थी। एक दिन महंत जी बोले, “शुभ्रांशु जी, क्या आप मेरे संगठन का एक वेब-साईट बना सकते हैं?” यह आज से कोई बीस-बाईस वर्ष पुरानी बात है। उन दिनों वेब-साईट बनाने के ज़्यादा तरीक़े नहीं आये थे, ना ही होस्टिंग की कोई अच्छी व्यवस्था थी। पर मैंने रात भर बैठकर “संकटमोचन फाउंडेशन” का एक वेब-साईट बना डाला। यह मेरी ओर से प्रोफेसर मिश्र जी के मास-मीडिया कैंपेन में एक लघुतम योगदान था।
आज जाँच की तो पता चला कि https://sankatmochan.tripod.com अभी भी विद्यमान है। स्व॰ वीरभद्र मिश्रा जी और उनके स्वच्छ-गंगा के प्रयासों के बारे में इंटरनेट पर और भी बहुत सारी सामग्री उपलब्ध है।
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