Sunday 27 November 2016

पंचतंत्र और नोटबंदी

एक संन्यासी था, जो दिनभर आस-पास के गाँवों में भिक्षा माँगकर गुज़र-बसर करता था। शाम को भोजन के बाद यदि कुछ अनाज बच जाता था तो वह उसे कपड़े की एक पोटली में बॉंधकर अपनी कुटिया में दीवाल पर लगी एक खूँटी पर टाँग देता था। लेकिन रात के समय एक चूहा कूद-कूद कर उसकी पोटली में छेद कर डालता और सारा अनाज चट कर जाता था। यह देख भिक्षुक ने दीवाल की खूँटी को थोड़ी ऊँचाई पर ठोक दिया। लेकिन चूहा फिर भी उछलकर पोटली का कपड़ा काट डालता और अनाज का दाना-दाना खा जाता। संन्यासी ने खूँटी को बार-बार ऊँचा, और ऊँचा किया पर चूहे में तो मानों कोई दैवी शक्ति समा गई थी। उसके कूदने की क्षमता बढ़ती ही चली जाती थी।


यही नहीं, चूहे की भूख भी असीमित प्रतीत होने लगी थी। पोटली में चाहे सिर्फ़ मु्ट्ठी भर अनाज हो या थैलीभर, चूहा रातभर में ही सारा का सारा चट कर जाता था। हैरान संन्यासी ने अपने एक मित्र से अपनी परेशानी बताई। मित्र ने संन्यासी की कुटिया की पड़ताल की, इधर-उधर देखा, दीवार और फ़र्श को ठोका-बजाया, फिर बोला - तुम्हारी कुटिया के नीचे उस शैतान चूहे ने बड़ा बिल बना रखा है, चलो ज़मीन खोदकर देखते हैं। 


जब दोनों मित्रों ने मिलकर ज़मीन खोदी तो भौंचक्के रह गये। चोर चूहे ने सिर्फ़ अपना बिल बनाया था, बल्कि कुटिया के नीचे एक बड़ा तहख़ाना बना रखा था। उस तहख़ाने में मनों अनाज भरा हुआ था। अब संन्यासी की समझ में आया कि उसका सारा भोजन कहॉं चला जाता था। चूहा थोड़े-बहुत अनाज से अपना पेट भर लेता था, पर एक लोलुप चोर की तरह बाक़ी सारा अनाज ले जाकर अपने गुप्त तहख़ाने में जमा करता रहता था। ऐसा कर-करके जहाँ एक ओर चूहा असीमित अन्न-धन का स्वामी बन गया वहीं संन्यासी एक निर्धन भिक्षुक ही रहा।


यह सब देखकर संन्यासी के मित्र ने कहा कि हो हो, इस कुटिल चूहे की छलाँग लगाने की इस अद्भुत शक्ति का रहस्य यह विशाल धन भंडार ही है, वर्ना एक मामूली चूहे की क्या बिसात कि इतनी ऊँची-ऊँची कूद लगाए। उसने कह - चलो इसका सारा धन नष्ट कर देते हैं। फिर दोनों ने मिलकर चूहे द्वारा संचित सारे अनाज को बाहर निकाल कर अग्नि में होम कर दिया।


फिर संन्यासी के मित्र ने उससे कहा कि आज तुम अपनी पोटली सबसे नीचे वाली कील पर टांगना, देखें चूहा क्या करता है। संन्यासी ने वैसा ही किया, और रात में सोने का नाटक करते हुए चूहे की ताक में जगा रहा। चूहा आया, लेकिन यह क्या? बिल्कुल मरी हुई-सी चाल से चूहा पोटली तक आया। फिर उसने कूद लगाई, पर आश्चर्य! इस बार उसकी उछाल कुछ अंगुलों तक ही सीमित रही। चूहे ने बड़ी कोशिश की, पर नीचे लटकी पोटली तक भी नहीं पहुँच पाया। उसने बहुत चीं-चीं की, तरह-तरह की आवाज़ें निकालीं पर कुछ नहीं हुआ। आख़िरकार थक हार कर वह कुटिया के बाहर चला गया। इयके बाद फिर वह चूहा संन्यासी की कुटिया में कभी नज़र नहीं आया। 


संन्यासी समझ गया कि चूहे की ताक़त उसके धन में ही थी। संचित धन के बल पर सिर्फ़ वह शारीरिक शक्ति में बल्कि मानसिक आत्मविश्वास में भी अतुलनीय क्षमता का स्वामी बन गया था। धन हाथ से निकलते ही चूहे की शक्ति क्षीण हो गई और वह परास्त हो गया। 


इस कहानी का नोटबंदी से परेशान और चहुँओर कूदफांद करनेवालों से कोई संबंध नहीं है।

Thursday 17 November 2016

My Lessons From the Gymnasium

Last few weeks of training in a gymnasium has taught me a few things about life and management.


1. Everyone needs motivation. I always thought that CEOs or Senior Executives did not need external motivation. Their position and responsibilities are enough to keep them charged. But, it feels good when the gym instructor tells me, "Yes, you can do it. Come on! Now, that is a good boy!" Yes, he calls me a boy and I feel elated when he gives me those small bits of praise. And, I get energised to go the extra bit - a few more pull-ups, some more weight on the bar or a few more stretches.


3. Work can be relaxing. After a gruelling workout the treadmill or the exercycle feels like relaxation! It was quite a chore earlier for me to walk on the treadmill for even ten minutes. But, once I have worked on the stretch targets given by my gym master and when I feel like I would drop dead, he tells me, "Now, you can do the treadmill for five minutes!" O! What a relief these words bring to me. Mere treadmill? Than you, Master! Even a six kmph trot on the treadmill feels like a good spell of rest.


So, friends! Don't feel small if you secretly crave that pat on your back. And, do give one to those who work for you. Also remember, those stretch targets never hurt anyone - just give them (or take for yourselves) an occasional break with some light job; a vacation can be taken but rarely.

Wednesday 9 November 2016

किधर से क्या?

आपने टीवी पर वह एल डी बत्तियों का कॉमर्शियल तो देखा होगा, जो इस प्रकार है:


   पति - क्या कर रही हो?

   पत्नी - घर में रौनक़ ला रही हूँ। वो स्विच अॉन करना।

   पति झट स्विच अॉन करता है और घर की सारी बत्तियाँ जल उठती हैं।


इस पूरे प्रकरण में दो बातें असंभव-सी लगती हैं - पत्नी ने कहा, वो स्विच ऑन करना और पति एक ही बार में समझ गया कि कौन सा स्विच ऑन करना है। दूसरी बात कि मात्र एक ही स्विच ऑन करने से पूरे घर की बत्तियाँ जगमगा उठती हैं।


इस कथानक में हम पहली वाली बात पर विचार करेंगे। जब पत्नी कहती है कि ज़रा उधर से मेरा मॉयश्चराइज़र  देना तो इस "उधर" के कई मायने हो सकते हैं - सिरहाने से, सामने के ड्रेसिंग टेबल से, बाथरूम के ताखे से, दूसरे कमरे की आल्मारी से, नुक्कड़ की दुकान से या पास के शॉपिंग मॉल से। अब ये कॉमर्शियल वाले जनाब एक ही बार में कैसे समझ गये कि ठीक कौन से वाले स्विच को दबाने से घर में रौनक़ जाएगी। और रौनक़ ही आएगी इसका भी क्या भरोसा? मुझे तो सारा अर्थ समझ कर मॉयश्चराइज़र लाने में ही पसीने छूट जाएँ, रौनक़ की तो अब बात ही कहॉं रही।


समस्या तो तब गूढ़ होती है जब श्रीमती जी बोलें - ज़रा उधर से वो देना। इसका मतलब कुछ भी हो सकता है जैसे कि ऊपर की दराज़ से नेलकटर देना या लखनऊ से चिकन का कुर्त्ता ला देना या टिम्बकटू से हाथीदाँत का नक़्क़ाशी वाला शो-पीस ले आना। और जो आपने पूछ लिया कि कहॉं से क्या लाऊँ तो फिर तो शामत ही आई समझिये, "ज़रा-सी बात नहीं समझते कि मैं ड्राइंग रूम से कुशन लाने को कह रही हूँ, पता नहीं दफ़्तर में कैसे काम करते होगे।" अब आप ही बताएँ कि जब उधर से वो लाने का अर्थ कल किचन से नमकदानी लाना था तो आज ड्राइंग रूम से कुशन लाना कैसे हो गया


समस्या तब भीषण हो जाती है जब वे बोलें, "ज़रा इधर बैठो, तुमसे कुछ कहना है।" दिमाग़ सन्नाटे में जाता है, ज़बान सूखकर हलक से लग जाती है और आँखों के आगे अंधेरा छा जाता है कि अब बेगम क्या बोलेंगी - क्या सुबह नाश्ते में मैंने क़मीज़ पर जो केचप गिरा लिया था उसपर नसीहत देंगी, पाँच साल पहले जो मैंने सूटकेस में मोज़ों के साथ रूमाल पैक कर दिये थे उस पर फिर से चर्चा होगी या पंद्रह साल पहले जो उनके मासूम भाई, अर्थात् अपने साले को, शतरंज में मात देकर मैंने सॉरी नहीं कहा था उस पाषाणहृदयता की पुन: वार्षिक-वाली भर्त्सना होगी! बिल्कुल किसी घने-सुनसान जंगल में रास्ता भटके हुए पथिक की मन:स्थिति हो जाती है, जिसपर एक ओर से शेर, दूसरी ओर से भेड़िया और ऊपर चट्टान पर से तेंदुआ घात लगाए बैठे हों और सामने पेड़ पर बंदर खौं-खौं कर रहा हो।


विश्व की सभी पत्नियों से प्रार्थना है कि अपने पतियों पर ऐसी रोमांचकारी, सस्पेंसयुक्त और भयोत्पादक भाषा का प्रयोग करें और साफ़-साफ़ बोलें कि मैं तुम्हें सख़्त नापसंद करती हूँ, तुम दुनिया के सबसे आलसी, कंजूस और निकम्मे इंसान हो, दुबारा फ़र्श गीला किया तो सर फोड़ दूँगी या कल फिर देर से आए तो घर में घुसने नहीं दूँगी आदि-आदि। बात तो एक ही है!

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