एक संन्यासी था, जो दिनभर आस-पास के गाँवों में भिक्षा माँगकर गुज़र-बसर करता था। शाम को भोजन के बाद यदि कुछ अनाज बच जाता था तो वह उसे कपड़े की एक पोटली में बॉंधकर अपनी कुटिया में दीवाल पर लगी एक खूँटी पर टाँग देता था। लेकिन रात के समय एक चूहा कूद-कूद कर उसकी पोटली में छेद कर डालता और सारा अनाज चट कर जाता था। यह देख भिक्षुक ने दीवाल की खूँटी को थोड़ी ऊँचाई पर ठोक दिया। लेकिन चूहा फिर भी उछलकर पोटली का कपड़ा काट डालता और अनाज का दाना-दाना खा जाता। संन्यासी ने खूँटी को बार-बार ऊँचा, और ऊँचा किया पर चूहे में तो मानों कोई दैवी शक्ति समा गई थी। उसके कूदने की क्षमता बढ़ती ही चली जाती थी।
यही नहीं, चूहे की भूख भी असीमित प्रतीत होने लगी थी। पोटली में चाहे सिर्फ़ मु्ट्ठी भर अनाज हो या थैलीभर, चूहा रातभर में ही सारा का सारा चट कर जाता था। हैरान संन्यासी ने अपने एक मित्र से अपनी परेशानी बताई। मित्र ने संन्यासी की कुटिया की पड़ताल की, इधर-उधर देखा, दीवार और फ़र्श को ठोका-बजाया, फिर बोला - तुम्हारी कुटिया के नीचे उस शैतान चूहे ने बड़ा बिल बना रखा है, चलो ज़मीन खोदकर देखते हैं।
जब दोनों मित्रों ने मिलकर ज़मीन खोदी तो भौंचक्के रह गये। चोर चूहे ने न सिर्फ़ अपना बिल बनाया था, बल्कि कुटिया के नीचे एक बड़ा तहख़ाना बना रखा था। उस तहख़ाने में मनों अनाज भरा हुआ था। अब संन्यासी की समझ में आया कि उसका सारा भोजन कहॉं चला जाता था। चूहा थोड़े-बहुत अनाज से अपना पेट भर लेता था, पर एक लोलुप चोर की तरह बाक़ी सारा अनाज ले जाकर अपने गुप्त तहख़ाने में जमा करता रहता था। ऐसा कर-करके जहाँ एक ओर चूहा असीमित अन्न-धन का स्वामी बन गया वहीं संन्यासी एक निर्धन भिक्षुक ही रहा।
यह सब देखकर संन्यासी के मित्र ने कहा कि हो न हो, इस कुटिल चूहे की छलाँग लगाने की इस अद्भुत शक्ति का रहस्य यह विशाल धन भंडार ही है, वर्ना एक मामूली चूहे की क्या बिसात कि इतनी ऊँची-ऊँची कूद लगाए। उसने कह - चलो इसका सारा धन नष्ट कर देते हैं। फिर दोनों ने मिलकर चूहे द्वारा संचित सारे अनाज को बाहर निकाल कर अग्नि में होम कर दिया।
फिर संन्यासी के मित्र ने उससे कहा कि आज तुम अपनी पोटली सबसे नीचे वाली कील पर टांगना, देखें चूहा क्या करता है। संन्यासी ने वैसा ही किया, और रात में सोने का नाटक करते हुए चूहे की ताक में जगा रहा। चूहा आया, लेकिन यह क्या? बिल्कुल मरी हुई-सी चाल से चूहा पोटली तक आया। फिर उसने कूद लगाई, पर आश्चर्य! इस बार उसकी उछाल कुछ अंगुलों तक ही सीमित रही। चूहे ने बड़ी कोशिश की, पर नीचे लटकी पोटली तक भी नहीं पहुँच पाया। उसने बहुत चीं-चीं की, तरह-तरह की आवाज़ें निकालीं पर कुछ नहीं हुआ। आख़िरकार थक हार कर वह कुटिया के बाहर चला गया। इयके बाद फिर वह चूहा संन्यासी की कुटिया में कभी नज़र नहीं आया।
संन्यासी समझ गया कि चूहे की ताक़त उसके धन में ही थी। संचित धन के बल पर न सिर्फ़ वह शारीरिक शक्ति में बल्कि मानसिक आत्मविश्वास में भी अतुलनीय क्षमता का स्वामी बन गया था। धन हाथ से निकलते ही चूहे की शक्ति क्षीण हो गई और वह परास्त हो गया।
इस कहानी का नोटबंदी से परेशान और चहुँओर कूदफांद करनेवालों से कोई संबंध नहीं है।