Tuesday, 26 May 2020

मेरी तप की आकांक्षा और मोक्षमार्ग की बाधाएँ

पुराने ज़माने में ऋषि मुनी बात-बात पर तपस्या में लग जाते थे क्रोध पर नियंत्रण नहीं रहा तो पर्वत पर पाँच वर्षों की तपस्या, काम वासना में मन फिसला तो किसी गहन कंदरा में दस वर्षों की कठिन तपस्या आम बात थी इन तपस्याओं को भंग करने के लिये क्रमश: राक्षसों और अप्सराओं की व्यवस्था भी थी, जो परीक्षा को और भी कठिन बना देती थी

अब मुझे कोई ये बताए कि अपने कामकाज से पाँच दस वर्षों की छुट्टी कैसे मिल जाती थी उन्हें? फिर कुल जमा सत्तर अस्सी वर्षों की ज़िंदगी में तीस चालीस साल तपस्या और प्रायश्चित में ही निक़ल जाएँ, और कोई बीस साल बचपन के घटा लें, तो बचे कोई पंद्रह साल। अब इसमें कोई क्या जिये और क्या प्रमाद और पाप करे?

कभी कभी उकताहट में मेरी भी इच्छा होती है कि पाँच सात वर्षों की तपस्या पर निकल पड़ूँ। पर मेरे संसार से विरक्ति के निर्णय पर पानी फिर जाता है कि साल भर में कुल जमा आठ दिन आकस्मिक अवकाश के मिलते हैं। अर्न्ड और मेडिकल लीव इत्यादि मिला दें तो महीना, सवा महीना और। इनमें आधे तो धर्मपत्नी की शॉपिंग में बैग और टोकरियाँ उठाते ही निकल जाते हैं। एक बाबा ने कहा, बेटा एक्स्ट्राऑर्डिनरी लीव लेकर मेरे साथ हिमालय चला चल। वहाँ तुम्हें दीक्षा दूँगा और तपस्या के गुर सिखाऊँगा। बाबा इतने आत्मीय तरीक़े से बोल रहे थे कि एक बार तो मुझे लगा कि तस्करी के गुर सिखाने की बात हो रही है। पहले तो मैं ख़ुश हुआ कि पाँच साल तक घर दफ़्तर के झंझटों से छुटकारा मिलेगा और मेरी अनुपस्थिति में बॉस और पत्नी दोनों को मेरी कमी खलेगी और मेरी क़ीमत पता चलेगी।

पत्नी ने मेरा प्लान सुना तो बिना सिर उठाए बोलीं, “जाते हुए रास्ते में ज़रा मेरा मोबाईल मरम्मत को देते जाना और ड्राईक्लीनर के यहाँ मेरा शॉल दे देना; मैं वापस मँगवा लूँगी।मैंने कहा कि भागवान मैं पाँच साल के लिये जा रहा हूँ। वे बोलीं कि फिर अख़बार वाले को बोल देना कि इंडियन एक्सप्रेस बंद कर दे, मैं तो हिंदुस्तान टाईम्स पढ़ती हूँ। और हॉं, होमलोन, कार लोन और आईफ़ोन के एम आई भरने का इंतज़ाम करते जाना। इतना सुनते ही तपस्या के मंसूबों पर पानी फिर गया। ये कमबख़्त एम आई भी ग़ज़ब की बीमारी है, लगी तो छूटती ही नहीं। अरे बीमारी क्या, बंधुआ मज़दूरी है, साहब।

फिर सोचा कि घने जंगल में गुरु और उनके चेलों ने खाना पकाने और झाड़ू पोंछा का काम दे दिया, तो ना तो तपस्या और चाकरी हो पायेगी, और ना ही भागा जायेगा। ये साधु लोग दस दस साल की तपस्या में खाते क्या होंगे? आस पास के फल और कंदमूल तो कुछ महीनों में निपट जाते होंगे। और अपना कोई खेती बाड़ी का भी अनुभव नहीं है कि सिंधु घाटी सभ्यता से प्रेरणा लेकर गाँव ही बसा लूँ। और फिर गाँव ही बसाना था तो संन्यास क्यों लेना?

फिर सोचा बिग बास्केट या ज़ोमैटो को ही रेगुलर सप्लाई का एडवांस ऑर्डर दे कर प्रयाण करूँ। पर उन्होंने वेबसाईट पर पूछा कि अपना पिन कोड डालें। अब दंडकारण्य और हिमालय की कंदराओं का भी पिन कोड होता है भला?

कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि समस्त ईश्वरीय और सांसारिक शक्तियाँ मेरी शांति और मोक्ष की राह में बाधाएँ बन खड़ी हैं। चलिये छोड़िये, मेरे कार्यालय जाने का टाईम हो गया। निकलता हूँ, नहीं तो बॉस झणमात्र में विरक्ति के मार्ग पर धकेल देगा।


Saturday, 9 May 2020

Remembering Father on Mother’s Day

Loss of one’s father is a shock that is impossible to recover from. Don’t get me wrong. Mother is no less important. Mother is the very essence of your being - she brings you into this world, suffers sleepless nights so that you sleep soundly, bears with your tantrums, sicknesses, understands your needs even before you express them and provides the very basis of emotional well being. Loss of one’s mother is devastating.

But, when father leaves the world, the feeling is of complete rudderelssness. Who would you go to explain your grown-up problems, who is your sounding board now? Where is the person by whose side you would just sit and sip your tea saying nothing, but all is understood and shared? One feels like a branch adrift in the waves after the collosal trunk of the tree has been cut and taken away. Where does the rootless branch find its moorings now?


After months of grieving one realises that this rootless branch is actually the colossal trunk to its own little branches and must, therefore, dig in. One must therefore bear and move on. Easy to say, but one must now grieve within, not outwardly.

An Ode to Babugiri

I had an interesting incident in Southern Railway, a typical babu response to a routine matter. The response was meant to impress all and sundry how on meticulous the Finance babu was and that nothing could sneak past his x-ray eyes. 

A purchase order was held up by a junior officer in Finance because the initial indent for material was not made on pink paper. Even though the indent had gone through the stages of vetting, issue of tender and tender committee proceedings, each of which stage has a finance officer in the picture. Yet, when the purchase order went to finance for final vetting, the section officer raised the matter and stopped the P.O. An officer, who would not trust his own judgement and be guided to the hilt by a subordinate ministerial staff, promptly issued a letter station that since the PINK paper was missing, someone had better explain the unpardonable lapse.

I spoke with the Principal Financial Advisor,  my counterpart, on the absurdity of it all. He would have none of it - if the rules say pink, it must be pink. I then enquired of him as to how a PINK indent would now be prepared as all indents and further handling of it has been made online. Then, I sent a poem composed by me to the PFA.

The gentleman was a South Indian, but he had studied in IITD and spoke, wrote and understood Hindi well. He then took it rather sportingly and responded in equal measure. Here are the documents.