खबर है कि पुणे के पोर्शाचालक, पुण्यात्मा, पियक्कड़, परमेश्वर-पोषित पुत्र ने मास्टर साहब को निबंध लिखकर जमा कर दिया है। मास्टर साहब ने इस बाल हत्यारे को दो मासूमों की हत्या करने की सजा तीन सौ शब्दों का निबंध सश्रम-कारावास के समकक्ष मानते हुए सुनाई थी।
पहले तो होनहार बालक के धनाढ्य पिता ने बाल-विद्यालय के मास्टर के विरुद्ध हाई-स्कूल के हेडमास्टर को अर्ज़ी लगाई कि कहीं आजकल के मल्टिपल-च्वायस प्रश्नपत्र के जमाने में कोई निबंध लिखता है भला, वह भी तीन सौ शब्दों का? यह तो बेचारे बालक के प्रति घोर अन्याय है। और तो और, मेरे पुत्र ने आम आदमी को कोई टेम्पू या मारुति से तो मारा नहीं है, पूरे ढाई-करोड़ी गाड़ी से निपटाया है। हाई स्कूल के हेडमास्टर साहब को ज्ञात होवे कि पोर्शा से कुचला व्यक्ति सीधा बैकुंठधाम को जाता है। ना गाय की पूँछ पकड़ने, ना वैतरणी पार करने का झंझट; सीधा मोक्ष का द्वार हैं पोर्शा के पहिये। मेरी महँगी गाड़ी “टोटल” हो गई तो क्या, दो जवान व्यक्ति सीधा स्वर्ग के नागरिक तो हो गये। अहो, यह पुण्य मेरे पुत्र को वाहन-चालक और मुझे वाहन का मालिक होने के कारण अनायास ही तो मिला है। धन्य है प्रभु की लीला! अत: हे, हाई-स्कूल के हेडमास्टर साहब! मेरे पुत्र पर आरोपित निबंध-लेखन की सजा माफ़ की जाए, या कम से कम स्टे तो लगा ही दिया जाए, या शब्दों की संख्या घटाकर पचास कर दी जाये।,
हाई स्कूल के हेडमास्टर साहब यह मल्टिपल-च्वायस वाला आवेदन देखकर भ्रमित हो गये। वे ठहरे निबंध लेखन के ज़माने के पढ़े हुए। सो बोले, “कुछ नहीं, कोई रियायत नहीं मिलेगी। निबंध लिखना है तो लिखना है, वह भी पूरे तीन सौ शब्दों का। दस-पंद्रह शब्दों की कमी होगी तो मैं देख लूँगा, भूल-चूक लेनी-देनी।” निराश होकर पीड़ित, संतप्त पिता ने स्थानीय कॉलेज से एक अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर को बुलाया, जिन्होंने समाजशास्त्र में भी ड्युअल डिग्री ले रखी थी। प्रोफ़ेसर साहब ने आनन-फ़ानन में कुल चालीस ड्राफ़्टों और एक हज़ार पन्नों के रफ़ वर्क के बाद मात्र तीन हफ़्ते में निबंध लिख डाला। फिर एचपी लेज़र प्रिंटर पर टाईम्स न्यू रोमन फॉंट के चौदह साईज़ में छापकर बाल-हत्यारे के पिता जी को सौंप दिया, और अपना सवा दो लाख का मेहनताना लेकर चल दिये।
पिता-पुत्र निबंध लेकर बाल-विद्यालय के मास्टर साहब के पास पहुँचे। मास्टर साहब प्रिंटआउट देखते ही भड़क गये। बोले निबंध हस्तलिखित होना चाहिये। पिताजी इस बार सस्ती-सी बीएमडब्ल्यू में गये थे, पोर्शा अब तक गैराज में जो थी। सस्ती गाड़ी की सवारी से स्वाभाविकत: उत्पन्न विनम्रता से बोले कि हस्तलिखित की तो बात नहीं हुई थी। मास्टर साहब ने बाहर खड़ी सस्ती बीएमडब्ल्यू पर नज़र डाली और कड़ककर बोले, “क़ानून सबके लिये बराबर होता है, निबंध तो हस्तलिखित ही देना पड़ेगा।” पिता-पुत्र पैर पटकते हुए बाहर निकले। होनहार बालक मन-ही-मन सोच रहा था कि पोर्शा को गैराज से निकलने तो दो, अगला नंबर इस स्कूटी-चालक मास्टर का ही लगाऊँगा। अभी अठारह का होने में चार-छह महीने बचे हैं, एक निबंध और सही।
ख़ैर, एक सप्ताह का समय बच रहा था। सो मासूम बाल-हत्यारे ने बॉर्नविटा, क्रैनबेरी जूस और ट्रिपल-चीज़-सलामी-पेपरोनी-पिज़्ज़ा के सहारे अपनी हैंडराईटिंग में निबंध लिख डाला। माताजी बेटे की यंत्रणा देख-देख परेशान होती रहीं और वैष्णोदेवी जाकर मत्था टेकने की मनता रख ली, पर देवी मॉं से अपेक्षित विलंब के लिये क्षमा भी माँग लिया; पोर्शा अभी गैराज में जो थी।
बाल-विद्यालय के मास्टर साहब हस्तलिखित निबंध देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और बोले, “जाओ बालक, अब तुम दण्डमुक्त हुए। अब जाओ, स्वच्छंद जीवन का आनंद लो। कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता क्योंकि तुम बाल-विद्यालय के छात्र हो, और मैं यहाँ का मास्टर।”
दण्डमुक्त बालक ने भी मन-ही-मन स्कूटी-चालक मास्टर को क्षमाप्रदान की और सोचा, “तुम बच गये मास्टर। इस सेवा के बदले मैं शीघ्र ही तुम्हें एक बुलेट मोटरसाईकिल उपहार में दूँगा!”
बुलेट मोटरसाईकिल की कथा फिर कभी।