श्रीमद्भग्वद्गीता के कुछ सर्वाधिक उद्धृत श्लोक हैं:
कर्र्मण्येवाधिकारस्ते माफलेषु कदाचन ….. जिसका आशय है कि कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है, फल में नहीं …..
और
यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत …. जिसमें भगवान कहते हैं कि वे धर्म की रक्षा लिये अवतार लेते हैं ….
पर मेरी दृष्टि में गीता का सर्वश्रेष्ठ श्लोक है:
न मे पार्थास्ति कर्त्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ।।३-२२।।
भावार्थ: हे पृथापुत्र! तीनों लोकों में मेरे लिए कोई भी कर्म नियत नहीं है, न मुझे किसी वस्तु का अभाव है और न आवश्यकता ही है | तो भी मैं नियत्कर्म करने में तत्पर रहता हूँ |
(There is no duty for me to do in all the three worlds, O Parth, nor do I have anything to gain or attain. Yet, I am engaged in prescribed duties.)
गीता के तृतीय अध्याय का यह बाईसवॉं श्लोक समर्थ एवम् सार्थक जीवन की वास्तविक कुंजी है। इस श्लोक में भगवान कहते हैं कि ना ही मुझे कुछ करने की बाध्यता है, ना ही ऐसा कुछ प्राप्त करना है जो मुझे ना मिला हो, परन्तु मुझे कर्त्तव्य करते रहना है। कर्मण्येवाधिकारस्ते….वाले श्लोक में यह तो निर्दिष्ट है कि फल मिले या न मिले, मुझे उसकी आशा नहीं करनी है और कर्म करते जाना है। पर कहीं न कहीं फल मिलने की सम्भावना है भले ही उसपर अधिकार ना हो।
न मे पार्थास्ति कर्त्तव्यं… वाले श्लोक में एक और भी ऊँचे स्तर की निस्पृहता और निष्कामता परिलक्षित होती है। व्यक्ति का कोई कर्त्तव्य निर्धारित या शेष नहीं है, ना ही फल मिलना है या किसी फल की कामना बची है, परंतु इस स्थिति में भी कर्म करना है। लालसा से ऐसी मुक्ति, चाहत से परे कर्म करने की ऐसी कर्त्तव्यशीलता क्या सामान्य मानव के समझ में समा सकती है?
क्या ऐसी निस्पृहता संभव है? क्या संसार से इतना ऊपर भी उठा जा सकता है कि व्यक्ति अपना कर्त्तव्य तब भी करें जब यह तय है कि उसे कुछ नहीं मिलना और ना ही कुछ चाहिये, ना पारिश्रमिक, ना राज-पाट और ना ही कोई आसक्ति या यश? तुलसीदास जी की पंक्तियाँ हैं - हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ … अर्थात् यह जीवन और इस जीवन के सारे लाग-लपेट ईश्वर के हाथों में है। पर तुलसीदास जी संभवत: सामान्य जनों को ही संबोधित कर रहे थे - ये पुरस्कार या दण्ड उपलब्ध हैं अवश्य, चाहे विधाता के ही द्वारा उनका वितरण किया जाये और आपको यथोचित मिलेंगे। पर सर्वथा आकांक्षाविहीन, परंतु कर्त्तव्यरत मनुष्य क्या हो सकता है? श्रीकृष्ण ने तो अपनी निस्पृहता का कारण भी इसके बाद के दो श्लोकों में बताया है:
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || ३-२३ ||
भावार्थ: क्योंकि यदि मैं नियत कर्मों को सावधानीपूर्वक न करूँ तो हे पार्थ! यह निश्चित है कि सारे मनुष्य मेरे पथ का ही अनुगमन करेंगे, अर्थात् कर्महीनता को प्राप्त होंगे।
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् |
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ||३- २४ ||
भावार्थ: यदि मैं नियतकर्म न करूँ तो ये सारे लोग भ्रष्ट हो जाएँ। तब मैं वर्णसंकर (अवांछित जन समुदाय) को उत्पन्न करने का कारण हो जाऊँगा और इस तरह सम्पूर्ण प्राणियों के विनाश का कारण बनूँगा।
सामान्यजन प्राय: अपने अग्रजों, माता-पिता, गुरुओं, अग्रगामियों, प्रतिष्ठितजनों, लीडरों, और मैनेजरों को देखकर ही प्रेरित होते हैं। हर व्यक्ति न तो शास्त्रों का अध्ययन कर सकता है ना ही उनकी समुचित व्याख्या कर सकता है। वह तो जीवन में सम्मुख उदाहरणों से ही दिशा प्राप्त करता है। यदि उसके बड़े और वरिष्ठजन सत्कर्म करते दीखते हैं तो वह भी वैसा ही करेगा। यदि वह देखता है कि जो अनुकरणीय पुरुष हैं वही या तो आलस्यग्रस्त हैं, निष्क्रिय हैं, अवांछनीय कर्मों वा दुर्गुणों में रत हैं, तो वह और उसके जैसे समस्त आमजन वैसे व्यवहार का ही अनुसरण करेंगे। फिर समाज का पतन तय है।
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