Wednesday, 9 November 2016

किधर से क्या?

आपने टीवी पर वह एल डी बत्तियों का कॉमर्शियल तो देखा होगा, जो इस प्रकार है:


   पति - क्या कर रही हो?

   पत्नी - घर में रौनक़ ला रही हूँ। वो स्विच अॉन करना।

   पति झट स्विच अॉन करता है और घर की सारी बत्तियाँ जल उठती हैं।


इस पूरे प्रकरण में दो बातें असंभव-सी लगती हैं - पत्नी ने कहा, वो स्विच ऑन करना और पति एक ही बार में समझ गया कि कौन सा स्विच ऑन करना है। दूसरी बात कि मात्र एक ही स्विच ऑन करने से पूरे घर की बत्तियाँ जगमगा उठती हैं।


इस कथानक में हम पहली वाली बात पर विचार करेंगे। जब पत्नी कहती है कि ज़रा उधर से मेरा मॉयश्चराइज़र  देना तो इस "उधर" के कई मायने हो सकते हैं - सिरहाने से, सामने के ड्रेसिंग टेबल से, बाथरूम के ताखे से, दूसरे कमरे की आल्मारी से, नुक्कड़ की दुकान से या पास के शॉपिंग मॉल से। अब ये कॉमर्शियल वाले जनाब एक ही बार में कैसे समझ गये कि ठीक कौन से वाले स्विच को दबाने से घर में रौनक़ जाएगी। और रौनक़ ही आएगी इसका भी क्या भरोसा? मुझे तो सारा अर्थ समझ कर मॉयश्चराइज़र लाने में ही पसीने छूट जाएँ, रौनक़ की तो अब बात ही कहॉं रही।


समस्या तो तब गूढ़ होती है जब श्रीमती जी बोलें - ज़रा उधर से वो देना। इसका मतलब कुछ भी हो सकता है जैसे कि ऊपर की दराज़ से नेलकटर देना या लखनऊ से चिकन का कुर्त्ता ला देना या टिम्बकटू से हाथीदाँत का नक़्क़ाशी वाला शो-पीस ले आना। और जो आपने पूछ लिया कि कहॉं से क्या लाऊँ तो फिर तो शामत ही आई समझिये, "ज़रा-सी बात नहीं समझते कि मैं ड्राइंग रूम से कुशन लाने को कह रही हूँ, पता नहीं दफ़्तर में कैसे काम करते होगे।" अब आप ही बताएँ कि जब उधर से वो लाने का अर्थ कल किचन से नमकदानी लाना था तो आज ड्राइंग रूम से कुशन लाना कैसे हो गया


समस्या तब भीषण हो जाती है जब वे बोलें, "ज़रा इधर बैठो, तुमसे कुछ कहना है।" दिमाग़ सन्नाटे में जाता है, ज़बान सूखकर हलक से लग जाती है और आँखों के आगे अंधेरा छा जाता है कि अब बेगम क्या बोलेंगी - क्या सुबह नाश्ते में मैंने क़मीज़ पर जो केचप गिरा लिया था उसपर नसीहत देंगी, पाँच साल पहले जो मैंने सूटकेस में मोज़ों के साथ रूमाल पैक कर दिये थे उस पर फिर से चर्चा होगी या पंद्रह साल पहले जो उनके मासूम भाई, अर्थात् अपने साले को, शतरंज में मात देकर मैंने सॉरी नहीं कहा था उस पाषाणहृदयता की पुन: वार्षिक-वाली भर्त्सना होगी! बिल्कुल किसी घने-सुनसान जंगल में रास्ता भटके हुए पथिक की मन:स्थिति हो जाती है, जिसपर एक ओर से शेर, दूसरी ओर से भेड़िया और ऊपर चट्टान पर से तेंदुआ घात लगाए बैठे हों और सामने पेड़ पर बंदर खौं-खौं कर रहा हो।


विश्व की सभी पत्नियों से प्रार्थना है कि अपने पतियों पर ऐसी रोमांचकारी, सस्पेंसयुक्त और भयोत्पादक भाषा का प्रयोग करें और साफ़-साफ़ बोलें कि मैं तुम्हें सख़्त नापसंद करती हूँ, तुम दुनिया के सबसे आलसी, कंजूस और निकम्मे इंसान हो, दुबारा फ़र्श गीला किया तो सर फोड़ दूँगी या कल फिर देर से आए तो घर में घुसने नहीं दूँगी आदि-आदि। बात तो एक ही है!

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Thursday, 27 October 2016

नौकरशाही का मैनुअल

नौकरशाही भी अजीब नाम है। नौकर भी और शाह भी। अंग्रेज़ी का ब्यूरोक्रेसी अधूरा सा लगता है। गवर्नमेंट सर्वेंट या पब्लिक सर्वेंट तो नितांत झाँसेबाजी लगती है। किसका सर्वेंट, काहे का सर्वेंट? अरे हम तो राजा के प्रतिनिधि हैं, कर-चूषक हैं, तगादेकार हैं। हम ही तो असली सरकार हैं।


क्या कहा आपने? राजा अब कहॉं रहे? अरे भाई! यह तो हम भी जानते हैं कि प्रजातंत्र में राजा नहीं होते। लेकिन आप यह भूलें कि प्रजातंत्र में प्रजा तो होती है। अब प्रजा है तो राजा भी होगा ही, चाहे उसे किसी और नाम से पुकारें। आपने बचपन में अपने स्कूल में यह घुट्टी ज़रूर पी होगी कि प्रजातंत्र में सरकार का चुनाव जनता करती है। वह आपका और आपके शिक्षकों का भ्रम था। आप तो विधायक और सांसद चुनते हैं। ये विधायक और सांसद आपस में मिलकर मंत्री इत्यादि बनाते हैं और समझते हैं कि हमने सरकार बना ली। ये भी एक छलावा ही है।


सरकार मंत्री या उनकी कुर्सियाँ नहीं होती। ये सब तो भ्रम बनाए रखने के साधन मात्र हैं। सरकार फ़ाइलें में होती है, जो हमारी आल्मारियों में बंद रहती हैं। सरकार हम नौकरशाहों की क़लम में होती है जिसका ढक्कन कसकर बंद करके हम अपनी जेबों में रखते हैं। जिस दिन हमने आल्मारी से फ़ाइल निकाली, क़लम से कुछ नोटिंग बनाई, उस दिन कुछ सरकने का सा अनुभव होता है और सरकार के होने का अहसास भी होता है। फिर हमारा कोई सहकर्मी झपट कर फ़ाइल को पकड़ लेता है और कुछ नोटिंग बनाकर अपनी वाली आल्मारी में बंद कर देता है। फ़ाइल बंद, सरकार बंद।


कभी-कभी कोई मंत्री झाँसे में नहीं आता और ज़बरन फ़ाइल मँगवा लेता है। तब हम फ़ाइल के साथ वह सारे कोड और मैनुअल लगा देते हैं जिनमें काम नहीं करने के पचास तरीक़े बताये गये हैं। हाऊ टू स्टॉप वर्क ऐंड फ्राइटेन बॉस - यह नौकरशाही का फ़लसफ़ा हमने पिछले सत्तर सालों में ख़ूब गुना है। अगर मंत्री जी फिर भी माने तो उन्हें प्रिसिडेंट और पास्ट-केसेज़ का हवाला देकर बताया जाता है कि सर, ठीक ऐसे ही केस में अमुक मंत्री की सीबीआई इंक्वायरी हुई थी, और फलॉं वाले सर तो जेल की हवा भी खा आए थे, गद्दी गई सो अलग।


अब मैनुअल तो मैनुअल है, कोई ऑटोमेटिक तो है नहीं कि हर जगह ख़ुद-बख़ुद चिपक जाए। इसीलिये यह मैनुअल और सीबीआई-विजिलेंस की तरकीब सिर्फ़ वहीं लगाई जाती है जहाँ नौकरशाह लगाना चाहता है। जहाँ काम में अपना भला हो वहॉं ग़रीबों, पिछड़ों, सामाजिक-न्याय, आर्थिक-तरक़्क़ी, प्राथमिक-शिक्षा या राष्ट्रीय-सुरक्षा के कारण बताकर फ़ाइल बढ़ाई जाती है। इन मुद्दों का कोई कोड या मैनुअल नहीं होता। ये तो हमारी क़लम की गंगोत्री से निकलने वाली गंगा की धाराएँ है। इनको पॉलिसी का नाम दिया गया है। फ़ाइल पर लिख दिया जाता है कि यदि इस वाले प्रस्ताव का तुरंत अनुमोदन नहीं किया गया तो फ़लाँ गाँव में भूख से, चारे के अभाव में, तीन हज़ार बकरियॉं दम तोड़ देंगी या कल प्रात:काल के पहले ही चीन तवांग पर क़ब्ज़ा कर लेगा। फिर क्या मंत्री और क्या मंत्री के चचा? दस्तखत के सिवा उनके पास चारा ही क्या बचता है? कभी-कभी तो सिर्फ़ चारा ही बचता है।


अरे साहब मंत्री तो आते-जाते रहते हैं, पाँच-साला जो ठहरे। हम तो तीस-पैंतीस वर्षों के ठेके पर पदासीन हैं। राजा तो अकबर और औरंगज़ेब थे - दशकों गद्दी से लगे रहे। जिसने चूँ-चपड़ की उसका सर काट डाला। यदि शाहजहाँ को पाँच साल का टर्म मिला होता तब क्या वह ताजमहल बनवा पाता? इतने कम समय में तो एस्टीमेट और टेंडर ही नहीं फ़ाइनल हुए होते। और मुमताज़ बेगम ने परलोक सिधारने में जो पंद्रह साल लगा दिये वह अलग से। अर्थात् कोई काम करने के लिये सिस्टम पर पकड़ होनी चाहिये, और वह आती है अनुभव से, स्थायित्व से, समय से। राजनेता, मंत्री आदि लाल बत्ती की गाड़ी में घूमें और ख़ुश रहें, दो-चार बीघा ज़मीन का घोटाला कर लें, अपनी भैंस के खोने पर पूरा पुलिस का महकमा लगा कर नाम कमाएँ। फ़ाइल तो बंधु तभी सरकेगी जब हम कहेंगे।


इसीलिये हमने यह नाम दिया नौकरशाह ताकि आप किसी ग़लतफ़हमी में रहें। नौकर आप, शाह हम।

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