आइंस्टाइन ने विक्षिप्तता की परिभाषा ऐसे की थी:
Insanity: Doing the same thing over and over again
and expecting different results.
(विक्षिप्तता: एक ही कर्म बार-बार करना और अलग-अलग परिणामों की अपेक्षा करना)
कोल्हू का बैल भी कुछ ऐसा ही करता है। यदि उसे रोका ना जाये तो सरसों का पूरा तेल निकलने के बाद भी वह गोल-गोल घूमता ही रहेगा यह सोचकर कि अभी तेल निकल रहा है, या और तेल निकलेगा। क्या कहा आपने? कोल्हू का बैल सोचता कहाँ है? बिल्कुल सही फर्माया - हम नौकरशाह ही कौन-से सोचने के महारथी हैं?
एक आम बैल को सुबह शाम भूसी-खल्ली में पानी मिलाकर चारा मिलता है, और अवश्य मिलता है चाहे सारी सरसों ख़त्म हो जाये और सारे खेत जुत जायें। उसे निठल्ले बैठने पर भी भर-पेट भोजन मिलता है। हमें भी महीने के आख़िरी दिन पूरी तनख़्वाह कुछ वैसे ही मिलती है, महँगाई भत्ते के साथ - हर महीने, और कभी कभी तो पिछला बकाया चारा भी एरियर्स के तौर पर डाल दिया जाता है।
हमारा सरकारी तंत्र एक कोल्हू ही तो है। सारी नौकरशाही कंधे पर जुआ रखकर तेल पेर रही है। सरसों सूखकर रेत बन गयी, पर हमें और आता ही क्या है? हम तो भाई साहब, कोल्हू ही चलायेंगे और इसी में से तरक़्क़ी, प्रगति, ख़ुशहाली, टेक्नॉलॉजी, हरित-ऊर्जा, और सामाजिक सौहार्द्र पैदा करेंगे। आप बस देखते जाइये - इसी कोल्हू में से हम स्किल्ड इंडिया, बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियॉं, वंदे भारत रेलगाड़ी, उच्च-शिक्षित स्नातक और अंतत: एक आत्म-निर्भर भारत निकालेंगे। इसे कोई मामूली कोल्हू ना समझें - यह तो सागर और मंदराचल पर्वत का लघु रूप है सागर मंथन का कलियुगी अवतार|
कोल्हू वही रहता है, बस बैल बदलते हैं। एकदम हॉट-स्वैप बैल - एक रिटायर हुआ नहीं कि दूसरा आ लगता है। गति और गतिविधि कभी नहीं रुकती। कभी-कभी कोई नई सरकार आ जाती है, मानों कोई नया किसान आया हो, और आधारभूत सवाल पूछ लेता है - भाई बैल! सरसों तो कब की सूख गई, कुछ नया क्यों नहीं करते? कोल्हू भी जर्जर हो गया, कहो तो एक आधुनिक तेल की मिल ख़रीद दें मोटर वाली, जैसा कि दूसरे देश वाले पहले ही कर चुके हैं?
पर हम तो वही काम जानते हैं जो हमारे अंग्रेज आका सिखा गये। और तो और, हमने तमाम कोड और मैनुअल ऐसे बना रखे हैं जो इसी कोल्हू पर फ़िट बैठते हैं। अधिकांश तो सन् अठारह सौ सत्तावन के फ़ौरन बाद लिखे गये थे। अब पुरानी धरोहर के हम ही तो रखवाले हैं, चाहे कोल्हू हो, या फ़ाईल-पत्र की व्यवस्था या उनके नियम क़ायदे। काम होता दीखना चाहिये, परिणाम निकले या ना निकले। हमारा तो रोल-मॉडल ही कोल्हू का बैल है जो निरंतर चलता रहता है। दूर से देखें तो चहल-पहल अच्छी लगती है। गले में टुनटुनाती घंटियां दुनिया भर में कर्मठता का संदेश फैलाती हैं| अगर कोई बैल जुआ फेंककर या पगहा तुड़ाकर नई राह तलाशने निकलता है, तो किसी-न-किसी कोल्हू या कोल्हू के बैल, अर्थात् किसी-न-किसी डिपार्टमेंट के लपेटे में आकर ढेर हो जाता है। नहीं तो सीवीसी, ऑडिट, सीबीआई जैसे हरकारे खेत की मेड़ पर बैठे हैं, जो बैल को झट पकड़ कर वापस कोल्हू में जोत देते हैं कि जाओ बेटा शांति से तेल पेरो, जो तुम्हारे बॉस लोग कर रहे हैं। कभी-कभी तो किसी क्रांतिकारी टाईप बैल को जेहल में चक्की पीसने पर लगा दिया जाता है। घूमना तो गोल-गोल ही है, कोल्हू हो या चक्की।
आप आम जन तो आइंस्टाइन के कथन को ध्यान में रखें और अगले जन्म में नौकरशाह बनने की प्रार्थना करें। निश्चिंत रहें, कोल्हू आपको सलामत मिलेगा। जैसे ही कोई बैल धराशायी हो आप अपना कंधा लगाने को तत्पर रहना। फिर गोल-गोल घूमिये और सुबह-शाम की भूसी-खल्ली तय समझिये।
---ooo ---