Thursday, 30 January 2025

आजकल लोग सोसाइटियों में रहते हैं


आजकल लोग सोसाइटियों में रहते हैं। हमें समाजशास्त्र की कक्षा में गलत पढ़ाया गया था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य सामाजिक प्राणी अब हुआ है, पहले तो मनुष्यों के छिटपुट झुंड इधर-उधर गुफाओं में रहते थे। एक गुफा में बीस-तीस व्यक्ति हुआ करते थे। दूसरी गुफा कोसों दूर होती थी। पहली गुफा वालों को दूसरी बस्ती की कोई ख़बर नहीं। हो भी तो कैसे - टेलिफोन, चिट्ठी-पत्री, चौपाल-दालान, और ना ही किटी-पार्टी की गप्प और परनिंदा की साप्ताहिक बैठकें। कभी-कभार एक ही जानवर का शिकार करते दो झुंडों में टकराव हो जाता तो भाला या पत्थर मार कर वापस अपनी-अपनी गुफा में जा छिपते थे। ऐसे कहीं समाज का निर्माण होता है भला?

 

समाज तो अब बना है और मानव अब कहीं हुआ है सामाजिक प्राणी। आपने सुना ही होगा - त्रिभुवन सोसाइटी, गैलेक्सी अपार्टमेंट रेजिडेंट्स सोसाइटी, डीएलएफ डायमंड सोसाइटी, इत्यादि। ये आजकल की गुफाओं के नाम हैं। आमतौर पर हर सोसाइटी में सौ से लेकर हज़ार तक लोग रहते हैं। हर सोसाइटी एक क्लोज़-ग्रुप होती है और लोग एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल होते हैं सिवाय गुरु शरणम् सोसाइटी वालों के। जैसे हर गुफा में मुखिया, पहरेदार इत्यादि होते थे, वैसे ही सोसाइटियों में सेक्रेटरी, सिक्योरिटी गार्ड और ट्रेजरर होते हैं। जब कोई निवासी नया सेक्रेटरी बनना चाहता है तब सोसाइटी के सदस्य प्राचीन गुफावासियों की ही तरह ही मार-पीट और सिर-फुटौवल करते हैं, जिस प्रक्रिया को आजकल सोसाइटी-इलेक्शन कहा गया है।

 

आजकल पंचांग और कैलेंडर तय नहीं करते कि होली कब होगी, या दीवाली कब मनाई जाएगी। सोसाइटी की मैनेजिंग कमिटी बैठकर त्योहारों की तारीख़ें तय करती हैं। एकबार तो मेरी सोसाइटी में होली मन रही थी और बगल वाले में कोई सामूहिक हवन चल रहा था। पूछने पर पता चला कि उनके सेक्रेटरी की पत्नी की टाँग टूट गई है और वे लोग अब मैडम का पलस्तर खुलने के बाद अगले महीने होली खेलेंगे। हवन उनकी टाँग जल्दी ठीक हो जाए इसके लिये किया जा रहा था। ये होती है समाजिक सोच और ऐसे होते हैं सामाजिक प्राणी। ऐसे बाँटे जाते हैं सुख-दुख। दूर-दूर गुफाओं और मकानों में रहने से आदमी सामाजिक प्राणी नहीं बन जाता। कुछ सोसाइटियॉं बन तो जाती हैं, पर उसके निवासी सामाजिक नहीं बन पाते। अब गुरु शरणम् सोसाइटी को ही ले लें। एक भले आदमी को किसी चोर-उचक्के ने छुरा मार दिया, पर उस ग़रीब की मदद को कोई नहीं आया, यहाँ तक की अपनी पत्नी भी नहीं। बेचारे के मासूम उम्र के पुत्र ने आधी रात को टांग-टूंग कर रिक्शे से उसे अस्पताल पहुँचाया। ऐसी सोसाइटी बनने का क्या लाभ? प्राचीन काल में जब गुफावासी मनुष्य सामाजिक प्राणी नहीं था तब भी यदि कोई भेड़िया या तेंदुआ गुफा में ताक-झाँक करता दिख जाता तो सब मिलकर हुर्र-हुर्र करके खतरे का निवारण तो कर लेते थे।

 

मानव को सामाजिक प्राणी बनाने में बिल्डरों और डेवलपरों के योगदान को अभी तक मानवशास्त्रियों ने कोई महत्व नहीं दिया है। कुछ बिल्डर तो ऐसे पुण्यात्मा होते हैं कि दस-मंजिली बिल्डिंग की अनुमति पर पंद्रह से बीस मंजिलें तक बना डालते हैं ताकि अधिक से अधिक गुफावासियों को सामाजिक बनाया जा सके। आज इतना ही। मैं चलता हूँ क्योंकि मेरी सोसाइटी की मीटिंग है। हमारे सेक्रेटरी के कुत्ते को बगल वाली सोसाइटी के सिक्यूरिटीगार्ड ने कल डंडे से पीट दिया था। अब दोनों सोसाइटियों में युद्ध होगा। सेना बनाई जा रही है। मुझे भी हॉकी-स्टिक लेकर पहुँचना है, अपनी सोसाइटी की इज़्ज़त का सवाल जो है।

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Tuesday, 28 January 2025

डाकुओं वाली फ़िल्में अब क्यों नहीं बनतीं?


मैंने एक सिने-आलोचक से पूछा कि भाई आजकल डाकूवाली फ़िल्में क्यों नहीं बनतीं? आलोचक मित्र बोले डाकूवाली फ़िल्मों से आपका क्या तात्पर्य है? मैंने फिर कहा कि जैसे शोले, माँ क़सम, मेरा गाँव मेरा देश, गंगा की सौगंध इत्यादि।

 

कितना रोमांच रहता था! डाकू गाँव को चारों ओर से घेर लेते थे। सारे गॉंव वाले थर-थर काँपने लगते थे, और हर घर के सामने बोरी-आध बोरी चावल, आटा वगैरह रख दिया जाता था, जिसे डाकू लोग शांति से उठाकर ले जाते थे। जाते-जाते सरदार बिना मतलब दो-चार हवाई फायर भी कर देता था और एकाध गाँववाले को रायफ़ल के कुंदे से पीटा भी जाता था। अगले महीने की वसूली तक मियादी बुख़ार की तरह आतंक बना रहता था।महीने भर बाद फिर वही बोरी-आध बोरी की वसूली, वही हवाई फायर, और वही रायफल का डंडे-जैसा इस्तेमाल। फसलें तो साल में दो ही होती थीं, पर बेचारे गाँववाले हर महीने लुटते थे, मानों गाँव न हुआ कोई एटीएम वाली मशीन हो गई।

 

कभी-कभी घोड़ों पर डाकुओं का झुंड रेलगाड़ी से रेस लगाता और लूटमार करता था। इधर बेदम होते रेल इंजन का ड्राईवर बेलचे भर-भर कोयला झोंकता कि चल धन्नो क्या तू घोड़ों को भी नहीं हरा सकती, उधर डाकुओं के दर्जन भर घोड़े बिना रुके-सुस्ताए घंटों ट्रेन से प्रतियोगिता लगाए रहते। पहाड़ों और बीहड़ों में डाकुओं के सरदार का इश्क़ भी परवान चढ़ता था। बाक़ी के ब्रह्मचारी गैंग-मेंबर परिधि पर पहरा देते। अब क्या हुआ कि ऐसी संतुलित, यानी कि होलसम पिक्चरें नहीं बनतीं?

 

आलोचक मित्र सोच में पड़ गये। फिर बोले कि आजकल लोग सेंसिटिव हो गये हैं। बात-बात पर फ़िल्म निर्माताओं और कलाकारों पर मुकदमा ठोंक देते हैं कि हमारे समुदाय, या प्रोफेशन की बेइज़्ज़ती हो गई है, फ़िल्म पर रोक लगा दी जाये। अब भला डाकुओं से कौन बैर मोल ले?  वैसे भी अब महीने के, प्रति व्यक्ति, आधी बोरी अनाज तो सरकार मुफ्त ही दे देती है। उतने भर के लिये क्या घोड़े पालना, क्या रायफल दागना, और क्या ही गॉंव लूटना? पर इसका मतलब ये नहीं कि डाकू या डाकुओं का हुनर ख़त्म हो गये हैं। डाकू अब कई अन्य रूपों में पाए जाते हैं - नेता, मंत्री, बिल्डर, अधिकारी, पुलिस, प्राईवेट-अस्पताल, एयरलाइंस, मोबाईल-सेवा कंपनी, फूड-डेलिवरी कंपनी, टैक्सीवाला, डंडी-मारता ठेलेवाला, वगैरह-वगैरह। अक्सर तो आप जान भी नहीं पाते कि सामने वाला डाकू है और आप लुट जाते हैं। लुटने के बाद भी आप जान नहीं पाते कि आपका सर्वस्व हर लिया गया है, उल्टे अक्सर आप ख़ुश भी हो लेते हैं। लुटने के बाद ऐसी बेमतलब की ख़ुशी मध्यवर्गीयों को लेटेस्ट आई फ़ोन ख़रीदने पर होती है।  लूटने की फ्रीक्वेंसी भी बढ़ गई है और हफ़्ता वसूली के नाम से जानी जाती है। शहर के हर दुकानदार से, हर फेरीवाले से मोहल्ले  का गुंडा वसूली करता है कि मैं तुम्हें पुलिस से बचाऊँगा, फिर पुलिस वसूली करती है कि हम तुम्हें गुंडों से बचाएँगे। अब वह व्यापारी कोई अपनी जेब से तो देता नहीं, डंडी मारकर जनता से वसूलता है। 

 

आलोचक मित्र ने यह सब सुनाकर निष्कर्ष बताया कि अब डिस्ट्रीब्यूटेड डकैती होती है, शराफ़त से होती है, जो कि एक जीवंत प्रजातंत्र और प्रबुद्ध समाज का लक्षण है। पहले डकैती अपवादस्वरूप होती थी। डाकू लोग जंगलों या पहाड़ों में रहते थे और रसद-पानी ख़त्म होने पर ही गाँव वालों को लूटते थे। अब डकैती मेनस्ट्रीम हो गई है और जिसको देखो वह दूसरे को लूट रहा है। लूट शहरों में हो रही है, सड़कों पर रही है, दफ़्तरों में हो रही है, ऑनलाइन हो रही है, और अक्सर आपकी सहमति से हो रही है। तो फिर विनोद खन्ना और धर्मेंद्र स्टाइल डकैती का घोड़े और रायफल वाला प्रदर्शन भी बंद हो गया है। और, शहरी डाकू भला घोड़े पालें भी तो कहॉं, अपने टू-बीएचके अपार्टमेंट में? आप ही बताइये अब कोई डाकू वाली फ़िल्म बनाए भी तो क्यों, और कैसे?

 

मैं समझ गया और “हम हईं सजनिया तोहार” फ़िल्म देखने स्क्रीन में घुस गया; देर हो रही थी। फिर देखा सिने-आलोचक मित्र भी मुँह छुपाते हुए वही भोजपुरी फ़िल्म देखने स्क्रीन में घुस रहे थे। आजकल सिनेमाघर को स्क्रीन कहते हैं, पर उसकी कथा कभी और।