Thursday, 27 October 2016

नौकरशाही का मैनुअल

नौकरशाही भी अजीब नाम है। नौकर भी और शाह भी। अंग्रेज़ी का ब्यूरोक्रेसी अधूरा सा लगता है। गवर्नमेंट सर्वेंट या पब्लिक सर्वेंट तो नितांत झाँसेबाजी लगती है। किसका सर्वेंट, काहे का सर्वेंट? अरे हम तो राजा के प्रतिनिधि हैं, कर-चूषक हैं, तगादेकार हैं। हम ही तो असली सरकार हैं।


क्या कहा आपने? राजा अब कहॉं रहे? अरे भाई! यह तो हम भी जानते हैं कि प्रजातंत्र में राजा नहीं होते। लेकिन आप यह भूलें कि प्रजातंत्र में प्रजा तो होती है। अब प्रजा है तो राजा भी होगा ही, चाहे उसे किसी और नाम से पुकारें। आपने बचपन में अपने स्कूल में यह घुट्टी ज़रूर पी होगी कि प्रजातंत्र में सरकार का चुनाव जनता करती है। वह आपका और आपके शिक्षकों का भ्रम था। आप तो विधायक और सांसद चुनते हैं। ये विधायक और सांसद आपस में मिलकर मंत्री इत्यादि बनाते हैं और समझते हैं कि हमने सरकार बना ली। ये भी एक छलावा ही है।


सरकार मंत्री या उनकी कुर्सियाँ नहीं होती। ये सब तो भ्रम बनाए रखने के साधन मात्र हैं। सरकार फ़ाइलें में होती है, जो हमारी आल्मारियों में बंद रहती हैं। सरकार हम नौकरशाहों की क़लम में होती है जिसका ढक्कन कसकर बंद करके हम अपनी जेबों में रखते हैं। जिस दिन हमने आल्मारी से फ़ाइल निकाली, क़लम से कुछ नोटिंग बनाई, उस दिन कुछ सरकने का सा अनुभव होता है और सरकार के होने का अहसास भी होता है। फिर हमारा कोई सहकर्मी झपट कर फ़ाइल को पकड़ लेता है और कुछ नोटिंग बनाकर अपनी वाली आल्मारी में बंद कर देता है। फ़ाइल बंद, सरकार बंद।


कभी-कभी कोई मंत्री झाँसे में नहीं आता और ज़बरन फ़ाइल मँगवा लेता है। तब हम फ़ाइल के साथ वह सारे कोड और मैनुअल लगा देते हैं जिनमें काम नहीं करने के पचास तरीक़े बताये गये हैं। हाऊ टू स्टॉप वर्क ऐंड फ्राइटेन बॉस - यह नौकरशाही का फ़लसफ़ा हमने पिछले सत्तर सालों में ख़ूब गुना है। अगर मंत्री जी फिर भी माने तो उन्हें प्रिसिडेंट और पास्ट-केसेज़ का हवाला देकर बताया जाता है कि सर, ठीक ऐसे ही केस में अमुक मंत्री की सीबीआई इंक्वायरी हुई थी, और फलॉं वाले सर तो जेल की हवा भी खा आए थे, गद्दी गई सो अलग।


अब मैनुअल तो मैनुअल है, कोई ऑटोमेटिक तो है नहीं कि हर जगह ख़ुद-बख़ुद चिपक जाए। इसीलिये यह मैनुअल और सीबीआई-विजिलेंस की तरकीब सिर्फ़ वहीं लगाई जाती है जहाँ नौकरशाह लगाना चाहता है। जहाँ काम में अपना भला हो वहॉं ग़रीबों, पिछड़ों, सामाजिक-न्याय, आर्थिक-तरक़्क़ी, प्राथमिक-शिक्षा या राष्ट्रीय-सुरक्षा के कारण बताकर फ़ाइल बढ़ाई जाती है। इन मुद्दों का कोई कोड या मैनुअल नहीं होता। ये तो हमारी क़लम की गंगोत्री से निकलने वाली गंगा की धाराएँ है। इनको पॉलिसी का नाम दिया गया है। फ़ाइल पर लिख दिया जाता है कि यदि इस वाले प्रस्ताव का तुरंत अनुमोदन नहीं किया गया तो फ़लाँ गाँव में भूख से, चारे के अभाव में, तीन हज़ार बकरियॉं दम तोड़ देंगी या कल प्रात:काल के पहले ही चीन तवांग पर क़ब्ज़ा कर लेगा। फिर क्या मंत्री और क्या मंत्री के चचा? दस्तखत के सिवा उनके पास चारा ही क्या बचता है? कभी-कभी तो सिर्फ़ चारा ही बचता है।


अरे साहब मंत्री तो आते-जाते रहते हैं, पाँच-साला जो ठहरे। हम तो तीस-पैंतीस वर्षों के ठेके पर पदासीन हैं। राजा तो अकबर और औरंगज़ेब थे - दशकों गद्दी से लगे रहे। जिसने चूँ-चपड़ की उसका सर काट डाला। यदि शाहजहाँ को पाँच साल का टर्म मिला होता तब क्या वह ताजमहल बनवा पाता? इतने कम समय में तो एस्टीमेट और टेंडर ही नहीं फ़ाइनल हुए होते। और मुमताज़ बेगम ने परलोक सिधारने में जो पंद्रह साल लगा दिये वह अलग से। अर्थात् कोई काम करने के लिये सिस्टम पर पकड़ होनी चाहिये, और वह आती है अनुभव से, स्थायित्व से, समय से। राजनेता, मंत्री आदि लाल बत्ती की गाड़ी में घूमें और ख़ुश रहें, दो-चार बीघा ज़मीन का घोटाला कर लें, अपनी भैंस के खोने पर पूरा पुलिस का महकमा लगा कर नाम कमाएँ। फ़ाइल तो बंधु तभी सरकेगी जब हम कहेंगे।


इसीलिये हमने यह नाम दिया नौकरशाह ताकि आप किसी ग़लतफ़हमी में रहें। नौकर आप, शाह हम।

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Thursday, 13 October 2016

आलू की फ़ैक्टरी

चीन में चावल फ़ैक्टरी में बनता है। वहॉं का प्लास्टिक का चावल, दुनिया भर में चल रहा है। लोगों को फैक्टरी में बने चावल से कोई पोषण नहीं मिलता, उल्टे स्वास्थ्य की हानि होती है। फिर मैं पूछता हूँ कि अच्छा-भला आलू फ़ैक्टरी में क्यों नहीं बन सकता? क्या सारा अनुसंधान, सारी रचनात्मकता चीन में ही संभव है?


जब क्रिकेट की गेंद फ़ैक्टरी में बन सकती है, फ़ुटबॉल और ग़ुब्बारे फ़ैक्टरी में बन सकते हैं तो मिलती-जुलती शक्ल और आकार के आलू क्यों नहीं बन सकते? एक ओर सारा सरकारी तंत्र मेक-इन-इंडिया के नारे लगा रहा है, कारख़ानों में विदेशी पूँजी का आवाहन कर रहा है, और आप हैं कि एक भले आदमी पर तंज कसे जा रहे हैं। भाई साहब, कारख़ानों में कुशल मज़दूर लगते हैं, ऊँची पगार माँगते हैं और सबसे पहले उनका स्किल-डेवलपमेंट करना पड़ता है। इन सबमें समय लगता है, पूँजी लगती है। आलू का निर्माण राष्ट्र-निर्माण का आसान और सस्ता उपाय है। बस आलू की फ़ैक्टरी लगाइये और ग़रीब दुखियारे किसानों को झोंक डालिये। फिर देखिये, जो किसान कल तक तुरई और ककड़ी की फ़ैक्टरी में अपने जलवे दिखाता था, तुरत-फुरत आलू का निर्माण करने लगेगा। हर्र लगे ना फिटकरी रंग चोखा आए।


मैं तो कहता हूँ कि हर नागरिक अपने आँगन में एक आलू की फ़ैक्टरी डलवा ले। दिन में दफ़्तर में कलम घिसे और सेकेंड शिफ़्ट में घर में ही आलू की असेंम्बली लाइन पर काम करे। एक तरफ़ सेलूलोज़, यूरिया, पोटाश और पुराने कपड़े, रद्दी काग़ज़ डालिये और दूसरी तरफ़ से गोल-गोल सुंदर, सुगठित आलू प्राप्त कीजिये। इधर श्रीमती जी ने कहा कि आलू ले आओ, और आप बोल पड़े, "अभी लो, भागवान। ज़रा आलू का साइज़ बता दो - सब्जी़ बनानी है या चिप्स तलने हैं? भर्ता बनाना है तब तो कोई भी साइज़ चलेगा। कल का रिजेक्टेड माल पड़ा है, कहो तो ले आऊँ?"


भारतीयों की जुगाड़-बुद्धि पर भरोसा रखें, श्रीमान! जल्दी ही, लौकी, करेले और पालक बनाने की मशीन भी बना डालेंगे। बल्कि मैं तो शर्त लगाने को तैयार हूँ कि टू-इन-वन और थ्री-इन-वन मशीनें भी अब दूर नहीं। एक ही फ़ैक्टरी सुबह आलू बनाएगी और दूसरी पाली में टमाटर। और आप हैं कि हँसे जा रहे हैं। हम सिर्फ़ आलू की फ़ैक्टरी लगाएँगे, बल्कि आलू बनाने की मशीनों का निर्यात भी करेंगे। फिर देखियेगा, विश्व में भारत-जनित ब्राउन-रिवॉल्यूशन का कमाल


http://althealthworks.com/7761/plastic-rice-from-china-is-real-and-it-can-cause-serious-health-problemsyelena/