Wednesday, 27 January 2016

चाय मैं क्यों बनाऊँ?

आप किसी बड़े होटल में जाकर चाय का ऑर्डर करें तो कमबख्त आपको चाय-पत्ती, चीनी, दूध लाकर परोस देते हैं। यहां तक कि छन्नी भी पटक जाते हैं। "लो जी, बनाओ और पी लो।" वह तो गनीमत है कि कोयला और अंगीठी नहीं दे जाते कि जाओ चूल्हा भी आप ही जला लो। पानी गर्म दे जाते हैं।

अब आप ही सोचो कि ऐसे होटल में आपको यदि चिकन-मसाला और पराठे खाने की इच्छा हुई तो क्या होगा? बेयरा आपकी टेबुल पर जिंदा मुर्गी और मसाले धर देगा और बोलेगा, "साहब जी, आप मुर्गी हलाल करो और मसाले कूटो-पीसो, तब तक मैं कड़ाही लेकर आता हूँ। और आटा आपको कौन सा चलेगा - शक्तिभोग या पिल्सबरी मल्टीग्रेन? आटा गूँथने के लिये पानी कौन सा चाहिए - बिसलेरी मांगता है या नलके का मारूँ?  अभी लेकर हाजिर हुआ।"

अब ये भी कोई आउटिंग हुई, साहब? ऐसे ईटिंग आउट का क्या मज़ा? अरे भाई, मैंने चाय मंगाई है। सीधे-सीधे एक प्याली चाय ले आओ। और ये क्या टेबुल पर काटना-पीसना-पकाना? तुम्हारा खानसामा भाग गया है क्या? मुझे बख्शो, बरखुरदार! आगे से मैं रामप्रसाद के ढाबे पर ही जाऊंगा।
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