Friday 29 December 2017

बचपन की मूँगफली

बचपन के दिनों में चिनियाबादाम खाने के सामूहिक उपक्रम की यादें पीछा नहीं छोड़तीं। गली से गुज़रते मूँगफली वाले की हरकारे जैसी आवाज़ मानों हमारे अंदर ऊर्जा का संचार कर देती थी। दौड़कर माँ के पास पहुँचते। तबतक मॉं भी मूँगफली वाले की आवाज़ सुन चुकी होती थी। फिर जैसे हमारे मन की आवाज़ सुनकर बोलती - चिनियाबादाम चाहिये? हम बच्चे कुछ ऊँ-ऊँ करते, तबतक मॉं बीस पैसे निकाल कर बोलती - जाओ छटाँक भर ले लो! छटाँक, यानि एक सेर का सोलहवॉं हिस्सा, लगभग साठ ग्राम।

अब दौड़कर बाहर निकले और पुकारा, चिनियाबादाम! यहॉं आइये। चिनियाबादाम वाला आता और अपनी कॉंख में दबा सींकों से बना स्टैंड, जिसे बाद में हमने इंजीनियरिंग कॉलेज में दोषहीन हाईपरबोला के उदाहरण के रूप में पढ़ा, ज़मीन पर रखता और उसपर अपने सिर वाली टोकरी जमाता। फिर अपनी लकड़ी के डंडे वाला स्वनिर्मित तराज़ू निकालकर दिखाता, मानों कह रहा हो - देख लो बबुआ लोग, डंडी बिल्कुल सीधी है। फिर पूछता - केतना चाहीं? हम उतावली से बोलते - एक छटाँक, मानों कोई महँगी ख़रीदारी कर रहे हों 

फिर शुरु होती थी विक्रय की प्रक्रिया। मूँगफली वाला एक पत्थर का टुकड़ा एक पलड़े पर रखता, और हमेशा की तरह हम पूछते - क्या है? वह भी हमेशा की तरह मुस्कुराकर बोलता - छटाँक का बाट है! फिर दूसरे पलड़े पर मूँगफलियाँ रखी जाती और तराज़ू के पलड़े ऊपर-नीचे झूलते। इसी दौरान हम दो चार चिनियाबादाम उसकी टोकरी से निकाल कर गपक लेते। मूँगफली वाला उदारतापूर्वक हमारी लूट को नज़रअंदाज़ कर देता था, क्योंकि इसका समायोजन उसके पत्थर के छटाँक वाली बाट में पहले से ही किया हुआ होता था। बीस पैसे देकर पुराने अख़बार के मुड़े-कुचैले टुकड़े में मूँगफलियों को सहेजकर पकड़ते, फिर नमक की एक और पुड़िया मुफ़्त लेकर घर आते। चिनियाबादाम वाले के मसालेदार नमक का फ़ॉर्मूला मिल जाए तो पेटेंट कराकर मालामाल हो जाऊँ।

घर में छटाँक भर मूँगफली के चार बराबर हिस्से होते, तीन भाइयों के और एक माँ का। फिर माँ बोलती - मेरा मन नहीं है, तुमलोग ले लो। बड़ी मुश्किल से वह एक दो फलियॉं लेने को राज़ी होती। फिर शुरु होता मूँगफलियाँ खाने का कार्यक्रम! अब सोचकर आश्चर्य होता है कि सिर्फ़ साठ ग्राम चिनियाबादाम, वह भी तीन-चार हिस्सों में बँटी, कैसे एक पूरी दुपहरी काटने का संबल बन जाती थी। शायद हम धीरे-धीरे खाते थे, या खाते कम और गप्प ज़्यादा करते थे। मूँगफलियों के छिलके भी उसी काग़ज़ के टुकड़े पर डाले जाते थे। अत: कार्यक्रम के मध्याह्न के बाद मूँगफली के छिलकों के बीच साबुत मूँगफली ढूँढ कर निकालना भी एक दक्षता का काम बन जाता था। अब छिलकों के लिये भी कोई अलग काग़ज़ रखता है क्या? जैसे-जैसे छिलकों की तादाद बढ़ती, साबुत मूँगफली खोजना एक ऐड्वेंचर स्पोर्ट का रूप लेता जाता था, ऐसा रोमांचकारी, जैसे आजकल "ग्रैंड थेफ्ट ऑटो" या "असेसिन्स क्रीड" भी नहीं। कुछ समय बाद जब बहुत टटोलने पर भी मूंगफलियॉं मिलनी बंद हो जातीं तब इतिश्री मान लेते थे।

कल एक ठेलेवाले से पावभर मूँगफली ख़रीदी, यह सोचकर कि छटाँक भर से क्या होगा। पचीस रुपये पाव। बचपन में पावभर ख़रीदते तो फिजूलखर्च कहलाते। पर शायद मॉं कुछ और ले लेती, मेरा मन नहीं है का बहाना बनाती। हम पति-पत्नी ने मन भर खाया, उकता गये खाते-खाते। बहुत सारी बची है। आप आएँगे तो परोसेंगे, पुरानी यादों के साथ।



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