(मंत्री जी को समाजवाद की सूझी। बोले अफ़सर लोग एयरकंडीशन्ड कमरे में बैठकर राजशाही चला रहे हैं। गये वो दिन जब गोरे राज करते थे। अब सब बराबर हैं। फिर आदेश दिया कि हर अफ़सर के कमरे से चपरासी को बुलाने वाली घंटी हटवा दी जाये। यदि चपरासी को बुलाना हो, तो अफ़सरान अपने सिंहासन से उतरें और खुद अपने-अपने कमरे से बाहर आकर चपरासी को इज़्ज़त से आवाज़ लगायें। एक दिन कुछ ऐसा गुज़रा)
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मंत्री: (थोड़े शिकायती लहजे में) भई सचिव साहब, आप तो कभी अपने
कमरे में मिलते ही नहीं। ना तो इंटरकॉम पर मिलते हैं, ना ही कभी कोई
खोजने जाए तो कमरे में ही मिलते हैं। आखिर हर समय आप रहते कहाँ हैं, और
काम कब करते हैं?
सचिव: (माथा पकड़ते हुए) क्या करें सर? जब से आपने
चपरासी जी वाली घंटी हटवाई है, तब से सारे समय कमरे से निकलकर चपरासी
जी को ही खोजता रहता हूँ। जब भी कोई आगंतुक आता है, तो चाय के लिए
चपरासी जी को बुलाना पड़ता है| अब सांसदों, मंत्रियों या
अन्य अधिकारियों को बगैर चाय पूछे तो नहीं रह सकते हैं न सर! काहे से कि ये तो
शिष्टाचार और संस्कार के विरुद्ध होगा न, सर!
मंत्री: ऐसा क्यों? चपरासी तो कमरे के बाहर बैठा रहना
चाहिए। आप तो बस बाहर झाँकिये और पुकार लगा दीजिये।आएगा कैसे नहीं..
सचिव: चपरासी जी तो पहले भी फरार ही रहते थे सर, पर घंटी की
टन-टना-टन आवाज सुनकर चले ही आते थे। नहीं तो दो-चार बार घंटी बजाने पर उनका कोई
साथी यह कहते हुए उन्हें पकड़ ही लाता था कि-“चल मुए, तेरी गुमशुदगी
के कारण बड़े साहब ने घंटी बजा-बजाकर पूरे कॉरिडोर में सबकी जान हलकान कर डाली
है!”
मंत्री: अरे, तो आप उसकी खबर क्यों नहीं लेते?
यह
तो अनुशासनहीनता है!
सचिव: सर, एक बार सोचा कि कम्बख्त को चार्जशीट दे डालूँ। पर उसके लिए भी बुलाना
तो पड़ेगा ना?
मंत्री: हाँ, ये तो है, पर इसमें क्या परेशानी है?
सचिव: सर, अब घंटी पर लगी रोक के कारण मैं ही उसे ढूँढने निकला – जैसा कि आपका
आदेश है। चारों तरफ ढूँढ़ा, हर मंजिल, हर गलियारे,
कैंटीन,
शौचालय,
पार्किंग
– पर नालायक कहीं नहीं मिला। आखिर बैटरी वाले भोंपू पर आस-पास के पार्कों में
अनाउंसमेंट कराया- “कालूराम तुम कहाँ हो? जहाँ भी हो, दफ्तर वापस आ
जाओ। तुम्हें कोई कुछ नहीं बोलेगा।तुम्हारे साहब का रो-रोकर बुरा हाल है। कल दोपहर
से न तो उन्हें चाय नसीब हुई है, न ही उनके टिफिन का डब्बा खुला है। मेमसाहब अनखाए
टिफिन का डब्बा देखकर अलग भन्नाई हुई हैं। साहब को डिनर में टिफिन वाला पोहा ही
खाना पड़ा!”
मंत्री: हाँ-हाँ, तो आगे बोलिये। कालूराम मिला कि नहीं?
सचिव: कौन कालूराम?
मंत्री: अरे, वह आपके चपरासी जी..
सचिव: मिला सर! पूरे ढ़ाई दिन के बाद। कर्तव्य पथ के किनारे एक बेंच पर
सोया पड़ा था। मेरे भी ढ़ाई दिन कालूराम के पीछे ज़ाया हुए।
मंत्री: (थोड़ा चिढ़कर) अब ये कर्तव्य पथ क्या बला है?
सचिव: अरेरे… सर! धीरे बोलिए! कोई सुन लेगा तो गद्दी से हाथ धो बैठेंगे
आप! भूल गए क्या कि सरकार ने ‘राजपथ’ का नाम बदलकर उसे ‘कर्तव्य पथ’ बना दिया है!
मंत्री: हे भगवान! इतनी बड़ी बात मैं कैसे भूल गया। आगे से ध्यान रखूँगा।
आप भी किसी से इसकी चर्चा मत करिएगा। हाँ, तो फिर कालूराम का क्या हुआ? आपने
चार्जशीट दी उसे?
सचिव: कौन कालूराम? चार्जशीट किसे देनी थी?
मंत्री: अरे सचिव साहब, आपका चपरासी
कालूराम, जिसकी कहानी आप घंटे-भर से हमको सुना रहे हैं..
सचिव: हां, हां, सर! वो क्या है ना सर कि चाय नहीं मिलने से दिमाग सुस्त हो गया है।
चार्जशीट कैसे दे देता, सर! मुझे दो दिन से दफ्तर में चाय नसीब नहीं हुई। घर पर डिनर में रोज
पोहा खा रहा हूँ। दस्तखत की हुई फाइलों के अम्बार पड़े हैं, क्योंकि उन्हें
ले जाने वाला कालूराम नहीं था। और मैंने भोंपू पर सार्वजनिक रूप से जो वादा किया था
कि ‘कालूराम, तुम्हें कोई कुछ नहीं बोलेगा’, उसके बाद ऐसे
परिश्रमी सेवक, ऐसे सरकारी तारणहार को मैं चार्जशीट कैसे दे सकता था? सो,
मैंने
कालूराम से माफी माँग ली।
मंत्री: आप भी कमाल करते हैं सचिव साहब। आपने चपरासी से माफी क्यों माँगी,
जबकि
गलती उसी की थी?
सचिव: सर, प्रैक्टिकल बात तो यह है कि चपरासी जी को खुश रखना भी तो जरूरी है।
अब घंटी तो रही नहीं जिसको चार बार दबाऊँ। अब तो स्वयं ही बाहर जाकर बुलाना है।
अगर एक बार में नहीं सुनता, तो कॉरिडोर में कालूराम, कालूराम
चिल्लाता मैं कैसा लगूँगा? पता नहीं कहाँ-कहाँ चीख-पुकार मचानी
पड़े। क्या इस महान देश के एक सचिव को यह शोभा देगा?
मंत्री: अब मैं समझा कि आप पूरे टाइम अपने
चेंबर से गायब क्यों रहते हैं!
सचिव: (थोड़ा तपाक से) लेकिन, चिंता न करें श्रीमान! मैंने इस समस्या
का हल ढूँढ लिया है। कालूराम को मैंने अपने कक्ष में ही एक कुर्सी-टेबल दे दिया
है। वहीं बैठा रहता है वह, एयरकंडीशनिंग के मजे लेता है, मोबाइल
पर जोर-जोर से गाने सुनता है, गप्पें लड़ाता है। कभी-कभी अपने साथी
चपरासी भाईयों को इकट्ठा करके मेरे चेंबर में पार्टी भी दे देता है।
मंत्री: फिर आप काम कैसे करते हैं?
सचिव: करता हूँ न, सर! बहुत काम करता हूं सर! ब्रिटिश
सामंतवाद को मन-ही-मन गालियां देता हूँ और स्वदेशी समाजवाद तथा समरसता के कसीदे
पढ़ता हूँ, पावरपॉइंट प्रेज़ेंटेशन बनाता हूँ। बस ऐसे समय कट जाता है। (फिर
धीमें स्वर में) मैं तो दो-तीन महीने में रिटायर हो रहा हूँ, आप
अपना देख लीजिये, सर!
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