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Wednesday, 8 October 2008

कितना तुम पर गर्व हमें


मुंबई में २६ नवंबर, २००८  को  हुए  आतंकी  हमले  में  शहीद  वीर-सेनानियों  के  नाम  एक राष्ट्र,  एक पिताएक  पुत्र  तथा  एक  पत्नी  की  श्रद्धांजलियाँ
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ओ सैनिक …
महाप्रयाण की क्या जल्दी थी
ओ शहीद! कुछ रुक कर जाते
कितना तुम पर गर्व हमें है
यह तुमको बतला तो पाते

सिर्फ़ कल्पना के संबल से
क्या तुमको हम याद करेंगे?
कैसे आँखों में पानी भर
छाती में हम गर्व भरेंगे?

घुसा देश में जब बैरी था
मचा रहा था हाहाकार
दौड़ पड़े तुम कफ़न बाँध कर
पीछे हुई अनसुनी पुकार

घुसा घरों में सड़कों पर
जब शत्रु आग बरसाता होगा
हर मोड़ हर चौराहे पर
तुमसे हुआ सामना होगा

दुश्मन के कलुषित मंसूबे
तुमने काट गिराए होंगे
कलम किए होंगे उनके सिर
घाव स्वयं भी खाए होंगे

गली-गली में घुसे कायरों
जैसे आतंकी दुबके थे
निरपराध अनजान जनों पर
बमों गोलियों के भभके थे

देख प्रलय की इस अग्नि को
खून तुम्हारा खौला होगा
देश प्रेम के पलड़े तुमने
प्राणों को तब तौला होंगा

दौड़ पड़े होगे बेबाक
तुम महाकाल की बोली पर
हाय तुम्हारा नाम लिखा था
आतंकी की गोली पर

घायल हाथों से भी तुमने
खल को धूल चटाई होगी
हमें यकीन है गोली तुमने
हँसते-हँसते खाई होगी

पर ऐसी भी क्या जल्दी थी
ओ सैनिक कुछ रुक कर जाते
कितना तुम पर गर्व हमें है
यह तुमको बतला तो पाते


 बेटे ...
छोटे थे जब हाथ तुम्हारे
फिसल खिलौने गिर जाते थे
अपनी तुतली बोली में तुम
तीन-चार तक गिन पाते थे

कैसे उन हाथों ने थामी होंगी
बंदूकें शमशीर
और उतारी होंगी गोलियाँ
दुश्मन की छाती को चीर

होली के रंगों से चिढ़ तुम
भाग-भाग कर थे छुप जाते
फिर किस-किस कोने में छुप कर
हम पर खूब रंग बरसाते

पर यह खून की होली तुमने
आगे बढ़कर खेली होगी
बर्बर आतंकी की गोली
हँसते-हँसते झेली होगी

मन तो है ग़मगीन परंतु
शान से चौड़ा सीना है
नकली पत्थर के रत्नों में
मेरा लाल नगीना है

हर शहीद को स्वर्ग मिलेगा
नक्षत्रों ने यह लिख डाला
पर मुझसे पहले जाओगे
इसीलिए क्या मैने पाला?

पर ऐसी भी क्या जल्दी थी
ऐ बेटे कुछ रुक कर जाते
कितना तुम पर गर्व हमें है
हम तुमको बतला तो पाते


ओ पापा ...
मेलेबाज़ारोंउत्सव में
उंगली पकड़ घुमाते थे तुम
मेरी ज़िद और नादानी पर
नहीं कभी झुंझलाते थे तुम

किंतु आज अपनी अकुलाहट
अब मैं किसके सम्मुख खोलूं
कई प्रश्न भी अनसुलझे हैं
अब किन बाहों में मैं झूलूँ

किंतु सोच कर रोमांचित हूँ
तुमने खूब खदेड़ा होगा
सब पापा होंजैसा मेरा
पार  उनका बेड़ा होगा

दुश्मन को तो चुन-चुन करके
तुमने खूब रपेटा होगा
हाथ तुम्हारे पड़ते ही वह
झट धरती पर लेटा होगा

पर पापा क्यों चले गये तुम
अभी कहानियाँ पड़ीं अधूरी
कैसे करूँ अकेले पार
जीवन की यह लंबी दूरी

आँखों में आँसू हैं मेरे
पर सिर बरबस तना हुआ है
मेरा शेर बहादुर पापा
आज देश पर फिदा हुआ है

पर ऐसी भी क्या जल्दी थी
पापाकुछ तो रुक कर जाते
कितना तुम पर गर्व हमें है
यह तुमको बतला तो पाते


प्रियतम …
इन सशक्त हाथों में मुझको
जीवन का आधार मिला था
सुख ही सुख से भरा हुआ
मेरा अपना संसार मिला था

इन हाथों की सेज बनाकर
मैं अपने सपने थी बुनती
इस सीने पर सिर रख कर मैं
मीठी नींद की आहट सुनती

पर हाय मैं भूल गयी थी
तुम  कभी बस मेरे थे
तुम पर निर्भर और देश में
मुझ जैसे बहुतेरे थे

मुझे याद है चाय की प्याली
भी तुम हौले से पीते थे
जीवन के हर पल को रस ले,
ठहर-ठहर कर के जीते थे

पर शत्रु का नाम सुना तो
दौड़
 पड़े तुम ले हथियार
ना ठिठकेना तनिक भी हिचके
नहीं ज़रा भी किया विचार

आज तुम्हारे रणकौशल से
धरती दुश्मन से खाली है
युद्धभूमि में बिखरी किंतु
मेरी माँग की ही लाली है

आतंकी की गोली ने जब
वीर-वक्ष को बींधा होगा
एक बार निश्चय आँखों में
मेरा चेहरा कौंधा होगा

छोड़ चले जो तुम अपना था
मन में दुख छाया तो होगा
साँसें उखड़ीं तब अधरों पर
नाम मेरा आया तो होगा

जाओ! तुम्हें अब क्या रोकू मैं
बेड़ी नहीं, संगिनी हूँ मैं
सुप्त तुम्हारे इन होठों की
केवल मूक रागिनी हूँ मैं

उफ़  करूँगी दुख पी लूँगी
सिसकी अंदर ही ले लूँगी
राहों में तुम याद आए तो
आँसू अंदर ही पी लूँगी

पर इतनी भी क्या जल्दी थी
प्रियतमकुछ तो रुक कर जाते
तुमपर कितना गर्व हमें है
यह तुमको बतला तो 
पाते
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