पुराने ज़माने में ऋषि मुनी बात-बात पर तपस्या में लग जाते थे। क्रोध पर नियंत्रण नहीं रहा तो पर्वत पर पाँच वर्षों की तपस्या, काम वासना में मन फिसला तो किसी गहन कंदरा में दस वर्षों की कठिन तपस्या आम बात थी। इन तपस्याओं को भंग करने के लिये क्रमश: राक्षसों और अप्सराओं की व्यवस्था भी थी, जो परीक्षा को और भी कठिन बना देती थी।
अब मुझे कोई ये बताए कि अपने कामकाज से पाँच दस वर्षों की छुट्टी कैसे मिल जाती थी उन्हें? फिर कुल जमा सत्तर अस्सी वर्षों की ज़िंदगी में तीस चालीस साल तपस्या और प्रायश्चित में ही निक़ल जाएँ, और कोई बीस साल बचपन के घटा लें, तो बचे कोई पंद्रह साल। अब इसमें कोई क्या जिये और क्या प्रमाद और पाप करे?
कभी कभी उकताहट में मेरी भी इच्छा होती है कि पाँच सात वर्षों की तपस्या पर निकल पड़ूँ। पर मेरे संसार से विरक्ति के निर्णय पर पानी फिर जाता है कि साल भर में कुल जमा आठ दिन आकस्मिक अवकाश के मिलते हैं। अर्न्ड और मेडिकल लीव इत्यादि मिला दें तो महीना, सवा महीना और। इनमें आधे तो धर्मपत्नी की शॉपिंग में बैग और टोकरियाँ उठाते ही निकल जाते हैं। एक बाबा ने कहा, बेटा एक्स्ट्राऑर्डिनरी लीव लेकर मेरे साथ हिमालय चला चल। वहाँ तुम्हें दीक्षा दूँगा और तपस्या के गुर सिखाऊँगा। बाबा इतने आत्मीय तरीक़े से बोल रहे थे कि एक बार तो मुझे लगा कि तस्करी के गुर सिखाने की बात हो रही है। पहले तो मैं ख़ुश हुआ कि पाँच साल तक घर दफ़्तर के झंझटों से छुटकारा मिलेगा और मेरी अनुपस्थिति में बॉस और पत्नी दोनों को मेरी कमी खलेगी और मेरी क़ीमत पता चलेगी।
पत्नी ने मेरा प्लान सुना तो बिना सिर उठाए बोलीं, “जाते हुए रास्ते में ज़रा मेरा मोबाईल मरम्मत को देते जाना और ड्राईक्लीनर के यहाँ मेरा शॉल दे देना; मैं वापस मँगवा लूँगी।” मैंने कहा कि भागवान मैं पाँच साल के लिये जा रहा हूँ। वे बोलीं कि फिर अख़बार वाले को बोल देना कि इंडियन एक्सप्रेस बंद कर दे, मैं तो हिंदुस्तान टाईम्स पढ़ती हूँ। और हॉं, होमलोन, कार लोन और आईफ़ोन के ई एम आई भरने का इंतज़ाम करते जाना। इतना सुनते ही तपस्या के मंसूबों पर पानी फिर गया। ये कमबख़्त ई एम आई भी ग़ज़ब की बीमारी है, लगी तो छूटती ही नहीं। अरे बीमारी क्या, बंधुआ मज़दूरी है, साहब।
फिर सोचा कि घने जंगल में गुरु और उनके चेलों ने खाना पकाने और झाड़ू पोंछा का काम दे दिया, तो ना तो तपस्या और चाकरी हो पायेगी, और ना ही भागा जायेगा। ये साधु लोग दस दस साल की तपस्या में खाते क्या होंगे? आस पास के फल और कंदमूल तो कुछ महीनों में निपट जाते होंगे। और अपना कोई खेती बाड़ी का भी अनुभव नहीं है कि सिंधु घाटी सभ्यता से प्रेरणा लेकर गाँव ही बसा लूँ। और फिर गाँव ही बसाना था तो संन्यास क्यों लेना?
फिर सोचा बिग बास्केट या ज़ोमैटो को ही रेगुलर सप्लाई का एडवांस ऑर्डर दे कर प्रयाण करूँ। पर उन्होंने वेबसाईट पर पूछा कि अपना पिन कोड डालें। अब दंडकारण्य और हिमालय की कंदराओं का भी पिन कोड होता है भला?
कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि समस्त ईश्वरीय और सांसारिक शक्तियाँ मेरी शांति और मोक्ष की राह में बाधाएँ बन खड़ी हैं। चलिये छोड़िये, मेरे कार्यालय जाने का टाईम हो गया। निकलता हूँ, नहीं तो बॉस झणमात्र में विरक्ति के मार्ग पर धकेल देगा।