Thursday 4 April 2013

दोस्त दी गड्डी - A New Car for My Friend

एक मेरे मित्र हैं, शौकीन और मिलनसार| हाल ही में उन्होंने एक नई मोटर गाड़ी खरीदी| अब गाड़ी क्या खरीदी, जान का जंजाल मोल ले लिया| आस पड़ोस वाले जल भुन गये उनकी बड़ी सी चमकदार सवारी को देख कर| मित्र परेशान, कैसे सुंदर गाड़ी को बुरी नज़रों से बचाएँ, कैसे शैतान छोकरों से रक्षा करें| इसी कश्मकश में पड़े रहते हैं, डरते-डरते मोटर को बाहर निकालते हैं, धीरे-धीरे चलाते हैं, तिरपाल से ढँक कर रखते हैं| उन्हीं की मनोदशा पर प्रस्तुत है एक छोटी सी कविता:
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एक हमारे मित्र हैं हुनरमंद होशियार
लाए खरीद बाज़ार से एक बड़ी सी कार
एक बड़ी सी कार नाम अर्टिगा राख्या
आस पड़ोस के सीने नागा लोटन लाग्या

नयी चमकती कार नवेली दुल्हन लागे
फीकी पड़ी पुरानी टाटा इसके आगे
दो गाड़ी की फेमिली बड़ी बात है
भारत के संभ्रांत वर्ग से लग गये आके

एम आइ चुकाएँगे रोज़ घूमने जाएँगे
अपने रथ में बैठ प्रात निश
पिकनिक मंदिर इंडिया गेट
होटल शॉपिंग और आखेट
हमको खूब जलाएँगे

दोस्त बंधु सब बगल खड़े हैं मुँह को बाये
सुंदर गाड़ी में भाई जी सैर कराएँ
जबसे गाड़ी द्वार लगी है शान बढ़ी
मन ही मन मियाँ बीबी फूले समाएँ

पर नयी गाड़ी साबोटाज ना हो जाए
अभी अभी जो लिया ताज ना खो जाए
कोई नटखट कौआ चिड़िया चोंच ना मारे
और गुज़रता छोरा कोई खरोंच ना मारे

ऐसे हैं भयभीत हमारे मित्र बहादुर
जैसे होली में घिर गयी सुंदरी नारी हो
बुरी नज़र ना लग जाए इस प्यारी को
कंबल से ढँक कर रखते हैं गाड़ी को

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Monday 1 April 2013

रीढ़ की हड्डी - Reedh Ki Haddi

चाटुकारों, चमचों एवम्  अवसरवादियों को भेंट, जो साहब का मुँह देख कर आगे की सोचते हैं, जो दोनों विकल्प रखते हैं कि जाने कब कौन से करवट ऊँट बैठ जाये। ऐसे चमचे, जो हर बॉस का खास होने का हुनर पालते हैं - उन्ही को समर्पित यह प्रयास 
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दो नावों की करूँ सवारी
जिधर भी देखूँ पलड़ा भारी
उधर पडूँ मैं कूद
नहीं है मेरा कोई वजूद

मैं हूँ थाली का वो बैंगन
जैसे रेल का भटका वैगन
लुढ़क-लुढ़क कर गिरता हूँ
मारा-मारा फिरता हूँ

मैं हूँ थाल का ढुलमुल पारा
कैसे बनूँ बॉस का प्यारा
जीवन में यह प्रश्न बड़ा था
स्वाभिमान निश्प्राण पड़ा था

रीढ़ की हड्डी गला रखी थी
कमर लचीली बना रखी थी
कहाँ झुकू कब सिजदा कर लूँ
कैसे जूते झपट चूम लूँ
दिल में हसरत दबा रखी थी

सोचा था यह सब करने से
बड़ी सफलता मिल जाएगी
अपनी किस्मत खुल जाएगी
साहब के सिंहासन सम्मुख
छोटी कुर्सी डल जाएगी
टोपी पर एक पंख लगेगा
बेड़ा अपना पार लगेगा
लोग जलेंगे, खूब भुनेंगे
मैं चाटूंगा दूध-मलाई
बाकी सारे चना चुगेंगे

पर हाय जब नैन खुले तो
स्वाभिमान और लाभ तुले तो
पाया क्षणिक मान के हेतु
तोड़ दिया अपनों से सेतु

ना इधर का रहा ना उधर ही बचा
ना कोई पिता ना कोई चचा
ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम
हाय ये क्यों पाया मानुस जनम

हमसे भले तो कुकुर ही रहे
मुँह उठाके चले, दुम हिलाते रहे
मालिक के दिए टुकड़ों पर पले
ना कोई दिखावा नहीं कोई दंभ
दुनिया से उठे तो इज्ज़त से चले  
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