Wednesday, 21 October 2015

यह मुँह और मसूर की दाल?

आज प्रात: श्रीमती जी ने बड़े पशोपेश में डाल दिया। नाश्ते में एक कटोरी अंकुरित मूँग परोस डाली, साथ में कटा हुआ प्याज़। टेबुल पर नज़र पड़ते ही मेरी तो चीख़ निकल गई, "अरे ये क़ीमती चीज़ें यहाँ खुले में क्यों पड़ी हैं? कितनी बार कहा है, इनको सहेजकर रखा करो। ये जो गोदरेज की आलमारी ख़रीदी है, वो क्यों ख़रीदी है?"

श्रीमतीजी बोलीं - अब छोड़ो भी, तुम्हारी उमर हुई। अब यदि महीने में एक बार भी दाल नहीं खाओगे, तो प्रोटीन कैसे मिलेगी, सेहत कैसे रहेगी?

मैंने कहा - पर पूरी एक कटोरी? ज़रा सोचो, मैं पूरे महीने बैल की तरह खटकर पैसे कमाता हूँ, एक-एक पाई करके तुम बचाती हो। क्या इसी फ़िज़ूलख़र्ची के लिये? अरे एक कटोरी में तो एक महीने की प्रोटीन पूरा मुहल्ला खा सकता है।

वो बोलीं - चलो तुम एक चम्मच तो खा लो। बाक़ी मैं किटी-पार्टी में कैश की जगह डाल दूँगी। आजकल दाल और प्याज़ भी चलते हैं। ज़रा सोचो, अगर मेरी बारी आ गई और एकमुश्त सवा किलो दाल मिल गई तो हम क्या-क्या कर सकते हैं।

मेरी कल्पना उड़ानें भरने लगी - अगले हफ़्ते बॉस को डिनर पर बुला ही लूँगा। छौंक लगी अरहर दाल देखकर बॉस अपनी ख़ुशी संभाल पाएँ, इसके पहले ही एक पूरा कटा हुआ प्याज़ पेश कर डालूँगा। फ़िर तो मेरी इनक्रीमेंट पक्की। जी तो हुआ कि श्रीमती जी के हाथ चूम लूँ। क्या समझदारी और दूरंदेशी पाई है मेरी सहधर्मिणी ने। पर जैसे ही हाथ चूमने उठा कि खुली हुई खिड़की पर नज़र पड़ी।

बोल पड़ा - और ये खिड़की क्यों खोल रखी है? किसी ने मुखबिरी कर दी तो पता नहीं कब इनकम टैक्स का छापा पड़ जाये। उससे बड़ी मुसीबत तो तब होगी जब कोई पड़ोसन दाल ही माँगने आ जाये। 

श्रीमती जी बोलीं - देखो जी, मैंने ये कैल्कुलेटेड रिस्क लिया है। कल मिसेज़ शर्मा ने दाल की कटोरी जानबूझकर कर खिड़की पर रख डाली थी। मेरे तो सीने पर साँप लोट गया। अरे हम भी कोई ऐरे-ग़ैरे थोड़े ही हैं? आज शरमाइन भी देख लें। अरे तुम्हें भी पूरी कटोरी थोड़े ही खानी है। बस चम्मच ज़रा ज़ोर से टनकार देना।

मेरी कल्पना अभी हवा से बातें कर ही रही थी। हाँ, तो बॉस के डिनर के बाद बची हुई दाल सहेज कर रख दूँगा। अब बॉस कोई सवा किलो दाल थोड़े ही डकारेंगे। कुछ बेचकर बेटे के कॉलेज की मोटी फ़ीस चुका दूँगा। बाक़ी से बेटी की शादी में बरातियों का स्वागत करूँगा, ज़रा धूम रहेगी।

पत्नी की बातों में मुझे मेरा और पूरे परिवार का भविष्य सुरक्षित नज़र आ रहा था। मानों जीवन बीमा की कोई अच्छी पॉलिसी हाथ लग गई हो। तंद्रा टूटी तो मैंने कहा - चलो, एक चम्मच मूँग दे ही डालो। फिर थोड़े काजू दे देना, उसी से पेट भर लूँगा।

फिर चलते-चलते मन ही मन सोचा - ज़रा देखो, अपनी श्रीमतीजी जिसे मैं घर की मुर्ग़ी दाल बराबर समझता था, आज बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों के कान काटती नज़र आ रही थी। आज मेरी धर्मपत्नी अरहर, मूँग और मसूर से भी ज़्यादा चमक रही थी। कितना भाग्यशाली हूँ मैं। तभी वो मुहावरा याद आ गया - यह मुँह और मसूर की दाल? दफ़्तर की बस आ गई थी और मैंने लपक कर हैंडल पकड़ लिया था।
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