दो गाँवों के बीच एक जंगल था। उस जंगल में एक ऊँचे-बड़े पेड़ पर अनेकों बंदर रहते थे। उनमें से कुछ अपने-आपको साहित्यकार कहते थे, तो कुछ कलाकार। कुछ वैज्ञानिक होने का दंभ भरते थे, तो कुछ फ़िल्म-निर्माता होने का दावा करते थे। वर्षों से गाँव वाले उस जंगल में नहीं जाते थे। इसलिये बंदरों को लोग भूल-सा गये थे। बंदर भी उपेक्षित महसूस कर रहे थे, या कहें कि आइडेंटिटी क्राइसिस नामक बीमारी से ग्रस्त हो चले थे।
एक दिन बंदरों को अपनी हालत सुधारने का मौक़ा मिल ही गया। एक टोपीवाला टोपियाँ बेचते-बेचते एक गाँव से दूसरे गाँव जा रहा था। उसने टोपियों से भरी टोकरी सिर पर उठा रखी थी। कंधे पर रोटी और गुड़ से भरी पोटली टँगी थी। रास्ते में टोपीवाले ने एक घना छायादार वृक्ष देखा तो सोचा क्यों न थोड़ा सुस्ता लूँ। ये वही बंदरों वाला पेड़ था। उधर जब बंदरों ने जब अर्से बाद एक आदमी को गुज़रते हुए देखा तो बड़े प्रसन्न हुए। जब टोपीवाले ने पेड़ के नीचे डेरा डाला तब तो बंदरों की बाँछें खिल गईं। पेड़ के नीचे बैठते ही थकान के कारण टोपीवाले की आँख लग गई।
बंदरों के सरदार ने आनन-फ़ानन में एक सभा बुलाई और फुसफुसाते हुए अपने साथियों से बोला - देखो, सालों से इस सुनसान जंगल में कोई नहीं आता। गाँववाले इधर का मुँह करते ही डरते हैं। अब इतने लंबे समय के बाद यह पथिक यहाँ आया है। चलो हम सब मिलकर इसकी इतनी सेवा करें कि हमारे आतिथ्य की चर्चा फैल जाये। गाँववाले फिर से इस रास्ते चलने लगेंगे और आते-जाते हम बंदों को दो-चार टुकड़े डाल दिया करेंगे। बंदर सरदार की बात सुनकर बड़े ख़ुश हुए। उन्हें सदा ऐसे मौक़े की तलाश रहती थी जिससे, उनकी पुरानी पहचान वापस मिल जाये, और खाने-पीने का कोई स्थाई इंतज़ाम हो जाये। अर्थात् पुरानी मुफ़्तख़ोरी की दुकान फिर से राशन बाँटने लगे।
लेकिन बंदर तो ठहरे आख़िर बंदर, चाहे वे साहित्यकार हों या वैज्ञानिक। उन्हें क्या पता मेहमान की आवभगत कैसे की जाती है। सबके सब नीचे उतरे और जैसे ही उनकी नज़र टोपीवाले की पोटली पर पड़ी, वे सारा संयम भूल गये और देखते ही देखते बेचारे टोपीवाले का सारा भोजन सफाचट कर गये। फिर उनकी नज़र टोपियों पर पड़ी। बंदरों ने एक-एक टोपी पहन ली और पेड़ की डालों पर जा बैठे। बंदरों की धमाचौकड़ी से टोपीवाले की नींद खुल गई।
आगे की कहानी आप जानते हैं कि कैसे एक बंदर की नक़ल करते-करते सारे बंदरों ने टोपियाँ वापस कर दीं। मेरा आपसे सिर्फ़ यह अनुरोध है कि हाल की पुरस्कार वापसी की घटनाओं से बंदरों की कहानी को न जोड़ें। बंदरों की भी भावनाएँ होती हैं।
एक दिन बंदरों को अपनी हालत सुधारने का मौक़ा मिल ही गया। एक टोपीवाला टोपियाँ बेचते-बेचते एक गाँव से दूसरे गाँव जा रहा था। उसने टोपियों से भरी टोकरी सिर पर उठा रखी थी। कंधे पर रोटी और गुड़ से भरी पोटली टँगी थी। रास्ते में टोपीवाले ने एक घना छायादार वृक्ष देखा तो सोचा क्यों न थोड़ा सुस्ता लूँ। ये वही बंदरों वाला पेड़ था। उधर जब बंदरों ने जब अर्से बाद एक आदमी को गुज़रते हुए देखा तो बड़े प्रसन्न हुए। जब टोपीवाले ने पेड़ के नीचे डेरा डाला तब तो बंदरों की बाँछें खिल गईं। पेड़ के नीचे बैठते ही थकान के कारण टोपीवाले की आँख लग गई।
बंदरों के सरदार ने आनन-फ़ानन में एक सभा बुलाई और फुसफुसाते हुए अपने साथियों से बोला - देखो, सालों से इस सुनसान जंगल में कोई नहीं आता। गाँववाले इधर का मुँह करते ही डरते हैं। अब इतने लंबे समय के बाद यह पथिक यहाँ आया है। चलो हम सब मिलकर इसकी इतनी सेवा करें कि हमारे आतिथ्य की चर्चा फैल जाये। गाँववाले फिर से इस रास्ते चलने लगेंगे और आते-जाते हम बंदों को दो-चार टुकड़े डाल दिया करेंगे। बंदर सरदार की बात सुनकर बड़े ख़ुश हुए। उन्हें सदा ऐसे मौक़े की तलाश रहती थी जिससे, उनकी पुरानी पहचान वापस मिल जाये, और खाने-पीने का कोई स्थाई इंतज़ाम हो जाये। अर्थात् पुरानी मुफ़्तख़ोरी की दुकान फिर से राशन बाँटने लगे।
लेकिन बंदर तो ठहरे आख़िर बंदर, चाहे वे साहित्यकार हों या वैज्ञानिक। उन्हें क्या पता मेहमान की आवभगत कैसे की जाती है। सबके सब नीचे उतरे और जैसे ही उनकी नज़र टोपीवाले की पोटली पर पड़ी, वे सारा संयम भूल गये और देखते ही देखते बेचारे टोपीवाले का सारा भोजन सफाचट कर गये। फिर उनकी नज़र टोपियों पर पड़ी। बंदरों ने एक-एक टोपी पहन ली और पेड़ की डालों पर जा बैठे। बंदरों की धमाचौकड़ी से टोपीवाले की नींद खुल गई।
आगे की कहानी आप जानते हैं कि कैसे एक बंदर की नक़ल करते-करते सारे बंदरों ने टोपियाँ वापस कर दीं। मेरा आपसे सिर्फ़ यह अनुरोध है कि हाल की पुरस्कार वापसी की घटनाओं से बंदरों की कहानी को न जोड़ें। बंदरों की भी भावनाएँ होती हैं।
बहुत बढ़िया। पढ़कर मज़ा आया।
ReplyDeleteExcellent Analogy... nice article
ReplyDelete