एक सज्जन, उतावले से, परेशान से, सड़क पर दौड़े चले जा रहे थे। दाहिने हाथ में साईकिल का हैंडल पकड़े खींच रहे थे, दूसरे हाथ में एक पट्टेवाला डब्बा झूल रहा था जो बार-बार उनके घुटने से टकराता और वे उसे कोसते। कंधे पर एक काला बैग लटक रहा था जो बार-बार सरकता था और वे महाशय अपना बायाँ हाथ पूरा ऊपर उठाकर बैग को कंधे पर वापस चढ़ा रहे थे। सज्जन बुरी तरह हाँफ़ रहे थे, माथे पर पसीना चमक रहा था जिसे वे बायें हाथ की आस्तीन से रह-रह कर पोछ लेते थे।
मैं उनके बग़ल से अपने स्कूटर पर गुज़रा तो उनकी परेशानी देखकर मैंने स्कूटर की गति धीमी कर ली। थोड़ी देर तक मैं उन सज्जन के समानांतर चलता रहा, पर उन्होंने अपनी बदहवासी में मेरी ओर नज़र भी नहीं डाली।
आख़िर जब मुझसे उनकी परेशानी और नहीं देखी गई, तब मैंने पूछ ही लिया - भाई साहब, आप क्यों इतने परेशान दिख रहे हैं और कहाँ दौड़े चले जा रहे हैं?
वे बोले - दफ़्तर को देर हो रही है। दस बज गये, लगता है आज बड़े साहब से फिर डाँट सुननी पड़ेगी।
मैंने पूछा - आपकी साईकिल ख़राब हो गई है क्या?
वे बोले - नहीं, क्यों?
मैंने पूछा - फिर आप साईकिल पर बैठ क्यों नहीं जाते, जल्दी पहुँच जाइयेगा।
सज्जन ने मेरी तरफ़ अजीब निगाहों से देखा, जो कह रही थीं ,"अजीब अहमक है, इतना भी नहीं समझता?" फिर बोले - साईकिल पर बैठने का टाईम किसे है?
हम मैनेजर लोग इसी उहापोह में फँसे रहते हैं। प्लानिंग का टाईम किसे है? अरे, ट्रेनिंग में क्यों पैसा और समय ख़राब करना? सब कुछ फटाफट जो करना है। बस साईकिल पकड़ी और दौड़ पड़े!
No comments:
Post a Comment