हर साल नया कैलेंडर छपता है| पिछले वर्ष जनवरी के पहले हफ़्ते में दफ़्तर में हर बार की तरह बड़ी चहल पहल थी| सब बड़े बाबू की खुशामद करते रहे - मैंने कहा, बड़े बाबू! इस साल तो मुझे तीन लगेंगे, एक कुर्सी के सामने के लिये, एक घर के लिये, और फिर बड़ा बेटा होस्टल चला गया है, एक उसे भी तो देना था! आख़िर उसे भी तो मालूम होना चाहिये कि पापा की किस दिन की छुट्टी है, तभी तो फ़ोन करेगा| यह अलग बात है कि शनिवार और रविवार को जब निर्धारित छुट्टियाँ होती हैं तब तो लड़का कभी कोई फ़ोन नहीं करता। कैलेंडर देने पर एक उम्मीद तो रहती कि अपने होस्टल के कमरे में टाँगेगा और फिर होली-दीवाली की तारीख़ों के लाल रंग देखकर शायद माता-पिता से बाद करने की चाह जागेगी।
बड़े बाबू बोले कि भाई दफ़्तर के हॉल में तो कैलेंडर टंगा ही रहता है, तुम्हें अलग से क्यों चाहिये। मैंने कहा कि कैलेंडर देखते रहने से काम में चुस्ती बनी रहती है। बड़े बाबू बोले कि कैलेंडर है, कोई घड़ी नहीं। घर वाले कैलेंडर से तारीख़ देखकर निकला करो। अब ऐसा तो है नहीं कि तुम्हारे कुर्सी पर बैठे बैठे तारीख़ बदल जायेगी। खैर, मैंने खुशामद करके तीन कैलेंडर झटक लिये और उड़ते कदमों से घर की ओर चल पड़ा था। सोचा था कि एक कैलेंडर अपने बचपन के साथी कमलाकर को दे दूँगा। वह भी क्या याद करेगा और शान से अपने ड्राइंग रूम में सरकारी कैलेंडर टाँगेगा। पर क्या पता था कि एक हफ़्ते बाद रिटर्न गिफ़्ट में कमलाकर का नौकर उसी सरकारी कैलेंडर में पकौड़ियाँ लपेटकर ले आएगा।
इस वर्ष जनवरी के बीस दिन निकल गये, पर नये कैलेंडरों का नामोनिशान नहीं था। बड़े बाबू सबको बोल-बोलकर परेशान हो गये कि अभी छुट्टियों के दिन तय नहीं हुए होंगे, अभी प्रेस में छप रहा होगा, बस आ ही रहा होगा। उधर बड़े साहब ने भी बड़े बाबू को चेता रखा था कि इस बार उन्हें दर्जन भर चाहिये होंगे, कई मिलने वालों को देना है। सरकारी अफ़सर किसी दोस्त-रिश्तेदार को यदि कैलेंडर उपहार में दे तो पाने वाले के लिये बड़ी गर्व की बात होती है। अमुक अपने ड्राइंग रूम में टाँगता है और हर आने-जानेवाले को बेतकल्लुफ़ी वाले गर्व से बोलता है कि उप निदेशक महोदय आए थे और स्वयं अपने हाथों से यह कैलेंडर दे गये। इसी गर्वानुभूति में साल कट जाता है, और फिर इंतज़ार होता है नये कैलेंडर का।
ख़ैर, थोड़े विलम्ब से ही सही, पर इस साल के कैलेंडर भी आ ही गये। बड़े साहब ने दर्जन भर हथिया लिये थे, सो इस बार मेरे हिस्से में एक ही आया। अब मैंने पुराना कैलेंडर उतारा और नया टांग दिया। पुराना वाला छोटे बेटे को दे दिया, जो उसकी तस्वीरें काटकर यहाँ वहाँ चिपका कर खुश हो लेगा। हमें भी कुछ ऐसे ही खुश रहने की आदत पड़ चली है। बड़ी उम्मीदों के साथ आया पिछला साल गुज़र जाता है, सूना और उपलब्धियों रहित - महंगाई और बढ़ती है, तनख़्वाह वही रहती है, पत्नी वैसे ही नई मिक्सी की माँग पर घंटों सुनाती है, बड़ा बेटा कॉलेज में फिर सेकेंड डिवीज़न लाता है, और गर्मकोट में एक और पैबंद लग जाता है। रह जाती हैं पुराने कैलेंडर की फीकी तस्वीरों-सी बुझी-दबी इच्छाएँ।
फिर सरकार नया कैलेंडर छपवाकर बाँट देती है - चटख, चमचमाती
तस्वीरों के साथ। फिर लगता है कि इस बार का नया साल ज़रूर कुछ अच्छा लेकर आयेगा।
नयी उमंगें जगती हैं, नई आशाएँ गुदगुदाती हैं कि ज़िंदगी इस बार तो निश्चय ही नई करवट
लेगी। ऐसा ही कोई पचहत्तर वर्षों से चल रहा है।
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