Saturday, 17 June 2017

Airlines Khap Panchayat

Airlines have taken things a bit too far this time. In the manner of khap panchayats or rogue trade unions they have ganged up to bar a Member of Parliament from flying. It is sad that no airline has abstained from this cartel-like behaviour.

The traveller, as reported, had created a scene at the airport. Same reports also say that he flung a printer down, but there are no reports of any attack on an airline staffer. Misbehaviour, if any, at the Airport should be dealt under airport rules or under laws on vandalism, assault etc., but not by airlines rules.

The traveller had not even been issued a boarding pass. Merely buying a ticket doesn't make him a flyer. For being a flyer, he should be inside the aircraft. If misbehaviour at the check-in counter puts one on the no-flyer list, we can extend this argument to absurd limits - an argument with an airline porter over wages, an argument or misbehaviour over excess baggage, a scuffle in the car parking lot with an airline staff or a fight with him in the vegetable market.

The airlines have got emboldened by the way the earlier case was handled. But, that was an act of misbehaviour and assault INSIDE the aircraft, hence airlines rules applied. If every service provider starts putting customers on no-service lists, I don't know what the laws of the land would be used for.

I do not agree with the airlines this time.

Saturday, 13 May 2017

साईकिल और मैनेजमेंट

एक सज्जन, उतावले से, परेशान से, सड़क पर दौड़े चले जा रहे थे। दाहिने हाथ में साईकिल का हैंडल पकड़े खींच रहे थे, दूसरे हाथ में एक पट्टेवाला डब्बा झूल रहा था जो बार-बार उनके घुटने से टकराता और वे उसे कोसते। कंधे पर एक काला बैग लटक रहा था जो बार-बार सरकता था और वे महाशय अपना बायाँ हाथ पूरा ऊपर उठाकर बैग को कंधे पर वापस चढ़ा रहे थे। सज्जन बुरी तरह हाँफ़ रहे थे, माथे पर पसीना चमक रहा था जिसे वे बायें हाथ की आस्तीन से रह-रह कर पोछ लेते थे।

मैं उनके बग़ल से अपने स्कूटर पर गुज़रा तो उनकी परेशानी देखकर मैंने स्कूटर की गति धीमी कर ली। थोड़ी देर तक मैं उन सज्जन के समानांतर चलता रहा, पर उन्होंने अपनी बदहवासी में मेरी ओर नज़र भी नहीं डाली।

आख़िर जब मुझसे उनकी परेशानी और नहीं देखी गई, तब मैंने पूछ ही लिया - भाई साहब, आप क्यों इतने परेशान दिख रहे हैं और कहाँ दौड़े चले जा रहे हैं?

वे बोले - दफ़्तर को देर हो रही है। दस बज गये, लगता है आज बड़े साहब से फिर डाँट सुननी पड़ेगी। 

मैंने पूछा - आपकी साईकिल ख़राब हो गई है क्या?

वे बोले - नहीं, क्यों?

मैंने पूछा - फिर आप साईकिल पर बैठ क्यों नहीं जाते, जल्दी पहुँच जाइयेगा।

सज्जन ने मेरी तरफ़ अजीब निगाहों से देखा, जो कह रही थीं ,"अजीब अहमक है, इतना भी नहीं समझता?" फिर बोले - साईकिल पर बैठने का टाईम किसे है?

हम मैनेजर लोग इसी उहापोह में फँसे रहते हैं। प्लानिंग का टाईम किसे है? अरे, ट्रेनिंग में क्यों पैसा और समय ख़राब करना? सब कुछ फटाफट जो करना है। बस साईकिल पकड़ी और दौड़ पड़े!

Friday, 5 May 2017

Requiem for Lal Batti (लाल बत्ती का शोक)

जब से उजड़ा है सरकारी वाहन का सिंदूर
ग़ायब नेता अधिकारी के चेहरे का है नूर
चेहरे का है नूर बड़ी मायूसी छाई
हाय कहॉं है रश्मि का रथ, कहॉं है कोहेनूर!

जब नेता जी कभी निकलते थे पिक्चर बाज़ार
छँटे रास्ते की सब भीड़ मिले सलाम हज़ार
मैडम जी की किटी पार्टी की रौनक़ भी तभी बने
जब वे आवें लाल बत्ती की गाड़ी भईं सवार

सरकारी साहब के बच्चे क्रिकेट खेलने जाएँ
या स्कूल के टीचर औ' बच्चों पर रौब जमाएँ
लाल घूमती बत्ती जब गाड़ी पर चकमक करती
क्लब रेस्तराँ होटल में जमकर डिस्काउंट पाएँ

करें पार्किंग मनमर्ज़ी की, ट्राफिक सिग्नल जंप करें
नहीं कभी जुर्माना होना, नहीं कभी चालान भरें
बिना लाइसेंस के भी बाबालोग घुमाते गाड़ी हैं
आम आदमी, बाक़ी ट्राफिक, फुटपथिये सम्मान करें

लेकिन जबसे बत्ती छिन गई मन है बड़ा उदास
वी आई पी ठप्पे के बिन जग ना आए रास
टोल पार्किंग देना भारी, गति जीवन की धीमी भई
चौराहे पर ठुल्ला रोके, मन में छाये त्रास

लाल बत्ती क्या भई तिरोहित मित्र सहेलियॉं व्यंग्य करें
नौकर-चाकर, माली और चपरासी ज़्यादा तंग करें
आसमान से गिरे अचानक कठिन धरा पर मन आहत
कैसे मैडम, साहब, नेता आम-जनों का संग करें

हे प्रभु मेरा सब हर लो, हर लो दौलत धन
मेरा घर, सब रिश्ते, शोहरत सब तुमको अर्पण
(जीवन सूना, व्यर्थ है लगे है, वाहन लगे कबाड़)
पर मोटर की बत्ती लाल लौटा दो, भगवन्!
                     ---०००---

Saturday, 10 December 2016

My Lesson From the Gymnasium

Last few weeks of training in a gymnasium has taught me a few things about life and management.


1. Everyone needs motivation. I always thought that CEOs or Senior Executives did not need external motivation. Their position and responsibilities are enough to keep them charged. But, it feels good when the gym instructor tells me, "Yes, you can do it. Come on! Now, that is a good boy!" Yes, he calls me a boy and I feel elated when he gives me those small bits of praise. And, I get energised to go the extra bit - a few more pull-ups, extra leg curls, some more weight on the bar or a few more stretches.


2. Rest is a chimera. When he tells me to lie down on a mat I mistakenly think that he wants me to relax. But, he has something else in store - floor exercises. He never had any thoughts to let me relax. I often feel that the guy cheats; says that I can relax and then begins a new gruelling session.


3. Work can be relaxing sometimes, or most of the times. After a gruelling workout, the treadmill or the exercycle feels like relaxation! It was quite a chore earlier for me to walk on the treadmill for even ten minutes. But, once I have worked on the stretch targets given by my gym trainer and when I feel like I would drop dead, he tells me, "Now, you can do the treadmill for five minutes!" O! What a relief these words bring to me. Mere treadmill? Thank you, Master! Even a six kmph trot on the treadmill feels like a good spell of rest.


So, friends! Don't feel small if you secretly crave that pat on your back. And, do give one to those who silently work for you. Also remember, those stretch targets never hurt anyone - just give your people (or take for yourselves) an occasional break with some light assignments; a vacation can be taken but rarely.



Sunday, 27 November 2016

पंचतंत्र और नोटबंदी

एक संन्यासी था, जो दिनभर आस-पास के गाँवों में भिक्षा माँगकर गुज़र-बसर करता था। शाम को भोजन के बाद यदि कुछ अनाज बच जाता था तो वह उसे कपड़े की एक पोटली में बॉंधकर अपनी कुटिया में दीवाल पर लगी एक खूँटी पर टाँग देता था। लेकिन रात के समय एक चूहा कूद-कूद कर उसकी पोटली में छेद कर डालता और सारा अनाज चट कर जाता था। यह देख भिक्षुक ने दीवाल की खूँटी को थोड़ी ऊँचाई पर ठोक दिया। लेकिन चूहा फिर भी उछलकर पोटली का कपड़ा काट डालता और अनाज का दाना-दाना खा जाता। संन्यासी ने खूँटी को बार-बार ऊँचा, और ऊँचा किया पर चूहे में तो मानों कोई दैवी शक्ति समा गई थी। उसके कूदने की क्षमता बढ़ती ही चली जाती थी।


यही नहीं, चूहे की भूख भी असीमित प्रतीत होने लगी थी। पोटली में चाहे सिर्फ़ मु्ट्ठी भर अनाज हो या थैलीभर, चूहा रातभर में ही सारा का सारा चट कर जाता था। हैरान संन्यासी ने अपने एक मित्र से अपनी परेशानी बताई। मित्र ने संन्यासी की कुटिया की पड़ताल की, इधर-उधर देखा, दीवार और फ़र्श को ठोका-बजाया, फिर बोला - तुम्हारी कुटिया के नीचे उस शैतान चूहे ने बड़ा बिल बना रखा है, चलो ज़मीन खोदकर देखते हैं। 


जब दोनों मित्रों ने मिलकर ज़मीन खोदी तो भौंचक्के रह गये। चोर चूहे ने सिर्फ़ अपना बिल बनाया था, बल्कि कुटिया के नीचे एक बड़ा तहख़ाना बना रखा था। उस तहख़ाने में मनों अनाज भरा हुआ था। अब संन्यासी की समझ में आया कि उसका सारा भोजन कहॉं चला जाता था। चूहा थोड़े-बहुत अनाज से अपना पेट भर लेता था, पर एक लोलुप चोर की तरह बाक़ी सारा अनाज ले जाकर अपने गुप्त तहख़ाने में जमा करता रहता था। ऐसा कर-करके जहाँ एक ओर चूहा असीमित अन्न-धन का स्वामी बन गया वहीं संन्यासी एक निर्धन भिक्षुक ही रहा।


यह सब देखकर संन्यासी के मित्र ने कहा कि हो हो, इस कुटिल चूहे की छलाँग लगाने की इस अद्भुत शक्ति का रहस्य यह विशाल धन भंडार ही है, वर्ना एक मामूली चूहे की क्या बिसात कि इतनी ऊँची-ऊँची कूद लगाए। उसने कह - चलो इसका सारा धन नष्ट कर देते हैं। फिर दोनों ने मिलकर चूहे द्वारा संचित सारे अनाज को बाहर निकाल कर अग्नि में होम कर दिया।


फिर संन्यासी के मित्र ने उससे कहा कि आज तुम अपनी पोटली सबसे नीचे वाली कील पर टांगना, देखें चूहा क्या करता है। संन्यासी ने वैसा ही किया, और रात में सोने का नाटक करते हुए चूहे की ताक में जगा रहा। चूहा आया, लेकिन यह क्या? बिल्कुल मरी हुई-सी चाल से चूहा पोटली तक आया। फिर उसने कूद लगाई, पर आश्चर्य! इस बार उसकी उछाल कुछ अंगुलों तक ही सीमित रही। चूहे ने बड़ी कोशिश की, पर नीचे लटकी पोटली तक भी नहीं पहुँच पाया। उसने बहुत चीं-चीं की, तरह-तरह की आवाज़ें निकालीं पर कुछ नहीं हुआ। आख़िरकार थक हार कर वह कुटिया के बाहर चला गया। इयके बाद फिर वह चूहा संन्यासी की कुटिया में कभी नज़र नहीं आया। 


संन्यासी समझ गया कि चूहे की ताक़त उसके धन में ही थी। संचित धन के बल पर सिर्फ़ वह शारीरिक शक्ति में बल्कि मानसिक आत्मविश्वास में भी अतुलनीय क्षमता का स्वामी बन गया था। धन हाथ से निकलते ही चूहे की शक्ति क्षीण हो गई और वह परास्त हो गया। 


इस कहानी का नोटबंदी से परेशान और चहुँओर कूदफांद करनेवालों से कोई संबंध नहीं है।

Thursday, 17 November 2016

My Lessons From the Gymnasium

Last few weeks of training in a gymnasium has taught me a few things about life and management.


1. Everyone needs motivation. I always thought that CEOs or Senior Executives did not need external motivation. Their position and responsibilities are enough to keep them charged. But, it feels good when the gym instructor tells me, "Yes, you can do it. Come on! Now, that is a good boy!" Yes, he calls me a boy and I feel elated when he gives me those small bits of praise. And, I get energised to go the extra bit - a few more pull-ups, some more weight on the bar or a few more stretches.


3. Work can be relaxing. After a gruelling workout the treadmill or the exercycle feels like relaxation! It was quite a chore earlier for me to walk on the treadmill for even ten minutes. But, once I have worked on the stretch targets given by my gym master and when I feel like I would drop dead, he tells me, "Now, you can do the treadmill for five minutes!" O! What a relief these words bring to me. Mere treadmill? Than you, Master! Even a six kmph trot on the treadmill feels like a good spell of rest.


So, friends! Don't feel small if you secretly crave that pat on your back. And, do give one to those who work for you. Also remember, those stretch targets never hurt anyone - just give them (or take for yourselves) an occasional break with some light job; a vacation can be taken but rarely.

Wednesday, 9 November 2016

किधर से क्या?

आपने टीवी पर वह एल डी बत्तियों का कॉमर्शियल तो देखा होगा, जो इस प्रकार है:


   पति - क्या कर रही हो?

   पत्नी - घर में रौनक़ ला रही हूँ। वो स्विच अॉन करना।

   पति झट स्विच अॉन करता है और घर की सारी बत्तियाँ जल उठती हैं।


इस पूरे प्रकरण में दो बातें असंभव-सी लगती हैं - पत्नी ने कहा, वो स्विच ऑन करना और पति एक ही बार में समझ गया कि कौन सा स्विच ऑन करना है। दूसरी बात कि मात्र एक ही स्विच ऑन करने से पूरे घर की बत्तियाँ जगमगा उठती हैं।


इस कथानक में हम पहली वाली बात पर विचार करेंगे। जब पत्नी कहती है कि ज़रा उधर से मेरा मॉयश्चराइज़र  देना तो इस "उधर" के कई मायने हो सकते हैं - सिरहाने से, सामने के ड्रेसिंग टेबल से, बाथरूम के ताखे से, दूसरे कमरे की आल्मारी से, नुक्कड़ की दुकान से या पास के शॉपिंग मॉल से। अब ये कॉमर्शियल वाले जनाब एक ही बार में कैसे समझ गये कि ठीक कौन से वाले स्विच को दबाने से घर में रौनक़ जाएगी। और रौनक़ ही आएगी इसका भी क्या भरोसा? मुझे तो सारा अर्थ समझ कर मॉयश्चराइज़र लाने में ही पसीने छूट जाएँ, रौनक़ की तो अब बात ही कहॉं रही।


समस्या तो तब गूढ़ होती है जब श्रीमती जी बोलें - ज़रा उधर से वो देना। इसका मतलब कुछ भी हो सकता है जैसे कि ऊपर की दराज़ से नेलकटर देना या लखनऊ से चिकन का कुर्त्ता ला देना या टिम्बकटू से हाथीदाँत का नक़्क़ाशी वाला शो-पीस ले आना। और जो आपने पूछ लिया कि कहॉं से क्या लाऊँ तो फिर तो शामत ही आई समझिये, "ज़रा-सी बात नहीं समझते कि मैं ड्राइंग रूम से कुशन लाने को कह रही हूँ, पता नहीं दफ़्तर में कैसे काम करते होगे।" अब आप ही बताएँ कि जब उधर से वो लाने का अर्थ कल किचन से नमकदानी लाना था तो आज ड्राइंग रूम से कुशन लाना कैसे हो गया


समस्या तब भीषण हो जाती है जब वे बोलें, "ज़रा इधर बैठो, तुमसे कुछ कहना है।" दिमाग़ सन्नाटे में जाता है, ज़बान सूखकर हलक से लग जाती है और आँखों के आगे अंधेरा छा जाता है कि अब बेगम क्या बोलेंगी - क्या सुबह नाश्ते में मैंने क़मीज़ पर जो केचप गिरा लिया था उसपर नसीहत देंगी, पाँच साल पहले जो मैंने सूटकेस में मोज़ों के साथ रूमाल पैक कर दिये थे उस पर फिर से चर्चा होगी या पंद्रह साल पहले जो उनके मासूम भाई, अर्थात् अपने साले को, शतरंज में मात देकर मैंने सॉरी नहीं कहा था उस पाषाणहृदयता की पुन: वार्षिक-वाली भर्त्सना होगी! बिल्कुल किसी घने-सुनसान जंगल में रास्ता भटके हुए पथिक की मन:स्थिति हो जाती है, जिसपर एक ओर से शेर, दूसरी ओर से भेड़िया और ऊपर चट्टान पर से तेंदुआ घात लगाए बैठे हों और सामने पेड़ पर बंदर खौं-खौं कर रहा हो।


विश्व की सभी पत्नियों से प्रार्थना है कि अपने पतियों पर ऐसी रोमांचकारी, सस्पेंसयुक्त और भयोत्पादक भाषा का प्रयोग करें और साफ़-साफ़ बोलें कि मैं तुम्हें सख़्त नापसंद करती हूँ, तुम दुनिया के सबसे आलसी, कंजूस और निकम्मे इंसान हो, दुबारा फ़र्श गीला किया तो सर फोड़ दूँगी या कल फिर देर से आए तो घर में घुसने नहीं दूँगी आदि-आदि। बात तो एक ही है!

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