Tuesday, 26 March 2024

MLA vs Mutual Funds

Many-many years ago, when Bihar was the badlands of the country (it is much better now), I had a chance encounter with a state politician. Travelling in the First AC of the Magadh Express from Patna to New Delhi, I found a middle-aged respectable-looking gentleman as my cabin companion. He was attired like a typical politician - Khadi kurta, half-jacket etc. We got talking in a short while.

 

The gentleman told me that he was travelling by train as the last resort. There weren’t many flights from Patna to Delhi then. I thought he was trying to impress me that he was a jet setter. So, I humoured him and asked what his problem was in travelling by train; after all we were travelling First AC. He nonchalantly told me that he could be an easy target during a train journey and might be killed easily. A gunshot was all that it took.

 

Taken aback I asked him why he would be killed so wantonly. The man said that he was a sitting MLA and had many enemies. Surely, I agreed with him, that politics did come with certain risks. But what would one gain by killing him once he was already elected an MLA. One could understand such elimination of a rival before election, not after.

 

What he told me was revealing. He said that he had defeated his rival by a narrow margin in the previous Vidhan Sabha elections. If he was killed now and if there was a fresh election, which there would be, the rival had every chance of winning it. I was simultaneously shocked and enlightened. Political killings suddenly unravelled as a game of marginal costing in game theory. I was also a bit frightened and asked him, “Are you saying that some gunmen will break into the compartment and shoot you down? So, there is every possibility of my becoming an unwitting victim, a collateral damage!” He replied, quite unemotionally, “Yes, it is likely that you may get shot too.”

 

I sat quietly for a few moments, nonplussed. Then I asked him wasn’t he to move around in his area all the time and that he was a sitting duck in any case. He looked at me with bemusement as if I was a child asking kindergarten level question. Then he said, “Arre nahin bhai, we are always surrounded by our own gunmen when we venture out.” A familiar picture flashed in my mind of a jeep with the Netaji sitting in the front, by the driver, and half a dozen stengun and double-barrel gun wielding goons, some sitting and some swinging on the footrest and window-sills.

 

I then asked him if he has been given some special security by the government. He laughed, with some sadness and also some pride, and said that they were his private security guards. I was curious to know more and enquired about the expenses he would be incurring on such elaborate private security. He said, again with sadness and pride, that each person cost him six to seven thousand rupees a month in salary, food and lodgings extra, totalling about twelve thousand per person. A quick calculation established that the politician sitting across me was spending some seventy thousand rupees per month on his security alone. I think it was double an MLA’s salary in those days!

 

So friends, think again before venturing. I can recommend some good Mutual Funds, where an SIP of seventy thousand per month can make you incalculably rich, within four Vidhan Sabha terms, sitting at home, while you twiddle your thumbs around the trigger of your rusting AK-47.

 


Tuesday, 10 October 2023

क्या आपका उल्लू भी टेढ़ा है?

मेरे पास कोई उल्लू-वुल्लू नहीं है। फिर मैं कैसे बताऊँ कि सीधा है या टेढ़ा? पर उल्लू सीधा करना एक आम शग़ल प्रतीत होता है; जिसे देखो वो या तो अपना उल्लू सीधा करने में व्यस्त हैं या किसी को परामर्श देने में कि उल्लू सीधा कैसे करते हैं।

एक दिन दफ़्तर में बड़े बाबू झुँझलाये-से बैठे थे। पूछने पर बोले, “क्या बताऊँ, इस दफ़्तर में जिसे देखो अपना उल्लू सीधा कर रहा है। एक मैं ही हूँ जो सुबह से शाम तक सिर झुकाये काम करता रहता हूँ।” मैंने ग़ौर से चारों ओर देखा, फिर टेबुलों के नीचे झाँका, और फिर धूलभरी आलमारियों के पीछे भी तलाशा। पर न तो कोई उल्लू दिखा, न ही उल्लू सीधा करता हुआ कोई साथी-कर्मचारी। और तो और, उल्लू सीधा करने का कोई यंत्र भी नज़र नहीं आया।

मैंने बड़े बाबू से पूछा कि मुझे तो कोई भी कर्मचारी उल्लू सीधा करता नहीं दीख रहा है। अलबत्ता, बड़े साहब ज़रूर अपने केबिन में किसी और भी बड़े अफ़सर की  चापलूसी में लगे थे, “सर, ये गुलाब जामुन ट्राई कीजिये, दत्ता हलवाई के यहाँ से ख़ास आपके लिये मँगवाई है। सर, ये शॉल मैंने मैडम के लिये स्पेशल बनवाई है भागलपुर के कारीगर से।” बड़े बाबू बोले, “तुम्हारी नज़र पैनी हो रही है। तुमने ठीक पकड़ा, बड़े साहब उल्लू सीधा करने की कोशिश कर रहे हैं, पर अभी सफलता नहीं मिली है।”

मैंने फिर पूछा कि कैसे पता चलेगा कि बड़े साहब का उल्लू सीधा हो गया है? बड़े बाबू ने समझाया कि जब साहब का ट्राँसफ़र प्रोजेक्ट ऑफ़िस में हो जायेगा और तुमको लड्डू बँटेगा, तब समझ लेना कि उनका उल्लू सीधा हो गया। अब जाओ, मेरा सिर मत खाओ। अपना काम करो, और मुझे मेरा काम करने दो।

मैं समझ गया कि बड़े-साहब का उल्लू कमाई वाली जगह पर पोस्टिंग से सीधा होता है। मेरा उल्लू लड्डू खाकर ही सीधा हो जाता है। जो जितना बड़ा, उसका उल्लू उतना ही टेढ़ा। मैं झटपट बड़े बाबू के पास पहुँचा और बोला कि अच्छा हुआ कि मैं कोई बड़ा अफ़सर नहीं बना। मुझसे तो उतना टेढ़ा उल्लू क़तई ना सीधा हो पाता। मैं तो लोअर डिविज़न क्लर्क ही सही। कालूराम चपरासी को बोलकर चाय मँगवा लेता हूँ, उतने में ही मेरा उल्लू सीधा हो जाता है। बड़े बाबू मेरी ओर देखकर मुस्कुराये और फिर फ़ाईल में नोटिंग बनाने लगे। 

तब से मैंने दिन में दो बार चाय मँगवानी शुरु कर दी है। कालूराम को भी पिलानी पड़ती है। पर दिन में दो बार अपना उल्लू सीधा कर लेता हूँ और ख़ुश रहता हूँ। इससे ज़्यादा महत्वाकांक्षा मेरे लिये टेढ़ी खीर है। टेढ़ी खीर के बारे में फिर कभी।

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Monday, 9 October 2023

घंटी प्रकरण - एक लघु नाटिका

(मंत्री जी को समाजवाद की सूझी। बोले अफ़सर लोग एयरकंडीशन्ड कमरे में बैठकर राजशाही चला रहे हैं। गये वो दिन जब गोरे राज करते थे। अब सब बराबर हैं। फिर आदेश दिया कि हर अफ़सर के कमरे से चपरासी को बुलाने वाली घंटी हटवा दी जाये। यदि चपरासी को बुलाना हो, तो अफ़सरान अपने सिंहासन से उतरें और खुद अपने-अपने कमरे से बाहर आकर चपरासी को इज़्ज़त से आवाज़ लगायें। एक दिन कुछ ऐसा गुज़रा)

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मंत्री: (थोड़े शिकायती लहजे में) भई सचिव साहब, आप तो कभी अपने कमरे में मिलते ही नहीं। ना तो इंटरकॉम पर मिलते हैं, ना ही कभी कोई खोजने जाए तो कमरे में ही मिलते हैं। आखिर हर समय आप रहते कहाँ हैं, और काम कब करते हैं?

सचिव: (माथा पकड़ते हुए) क्या करें सर? जब से आपने चपरासी जी वाली घंटी हटवाई है, तब से सारे समय कमरे से निकलकर चपरासी जी को ही खोजता रहता हूँ। जब भी कोई आगंतुक आता है, तो चाय के लिए चपरासी जी को बुलाना पड़ता है| अब सांसदों, मंत्रियों या अन्य अधिकारियों को बगैर चाय पूछे तो नहीं रह सकते हैं न सर! काहे से कि ये तो शिष्टाचार और संस्कार के विरुद्ध होगा न, सर!

मंत्री: ऐसा क्यों? चपरासी तो कमरे के बाहर बैठा रहना चाहिए। आप तो बस बाहर झाँकिये और पुकार लगा दीजिये।आएगा कैसे नहीं..

सचिव: चपरासी जी तो पहले भी फरार ही रहते थे सर, पर घंटी की टन-टना-टन आवाज सुनकर चले ही आते थे। नहीं तो दो-चार बार घंटी बजाने पर उनका कोई साथी यह कहते हुए उन्हें पकड़ ही लाता था कि-“चल मुए, तेरी गुमशुदगी के कारण बड़े साहब ने घंटी बजा-बजाकर पूरे कॉरिडोर में सबकी जान हलकान कर डाली है!”

मंत्री: अरे, तो आप उसकी खबर क्यों नहीं लेते? यह तो अनुशासनहीनता है!

सचिव: सर, एक बार सोचा कि कम्बख्त को चार्जशीट दे डालूँ। पर उसके लिए भी बुलाना तो पड़ेगा ना?

मंत्री: हाँ, ये तो है, पर इसमें क्या परेशानी है?

सचिव: सर, अब घंटी पर लगी रोक के कारण मैं ही उसे ढूँढने निकला – जैसा कि आपका आदेश है। चारों तरफ ढूँढ़ा, हर मंजिल, हर गलियारे, कैंटीन, शौचालय, पार्किंग – पर नालायक कहीं नहीं मिला। आखिर बैटरी वाले भोंपू पर आस-पास के पार्कों में अनाउंसमेंट कराया- “कालूराम तुम कहाँ हो? जहाँ भी हो, दफ्तर वापस आ जाओ। तुम्हें कोई कुछ नहीं बोलेगा।तुम्हारे साहब का रो-रोकर बुरा हाल है। कल दोपहर से न तो उन्हें चाय नसीब हुई है, न ही उनके टिफिन का डब्बा खुला है। मेमसाहब अनखाए टिफिन का डब्बा देखकर अलग भन्नाई हुई हैं। साहब को डिनर में टिफिन वाला पोहा ही खाना पड़ा!”

मंत्री: हाँ-हाँ, तो आगे बोलिये। कालूराम मिला कि नहीं?

सचिव: कौन कालूराम?

मंत्री: अरे, वह आपके चपरासी जी..

सचिव: मिला सर! पूरे ढ़ाई दिन के बाद। कर्तव्य पथ के किनारे एक बेंच पर सोया पड़ा था। मेरे भी ढ़ाई दिन कालूराम के पीछे ज़ाया हुए।

मंत्री: (थोड़ा चिढ़कर) अब ये कर्तव्य पथ क्या बला है?

सचिव: अरेरे… सर! धीरे बोलिए! कोई सुन लेगा तो गद्दी से हाथ धो बैठेंगे आप! भूल गए क्या कि सरकार ने ‘राजपथ’ का नाम बदलकर उसे ‘कर्तव्य पथ’ बना दिया है!

मंत्री: हे भगवान! इतनी बड़ी बात मैं कैसे भूल गया। आगे से ध्यान रखूँगा। आप भी किसी से इसकी चर्चा मत करिएगा। हाँ, तो फिर कालूराम का क्या हुआ? आपने चार्जशीट दी उसे?

सचिव: कौन कालूराम? चार्जशीट किसे देनी थी?

मंत्री: अरे सचिव साहब, आपका चपरासी कालूराम, जिसकी कहानी आप घंटे-भर से हमको सुना रहे हैं..

सचिव: हां, हां, सर! वो क्या है ना सर कि चाय नहीं मिलने से दिमाग सुस्त हो गया है। चार्जशीट कैसे दे देता, सर! मुझे दो दिन से दफ्तर में चाय नसीब नहीं हुई। घर पर डिनर में रोज पोहा खा रहा हूँ। दस्तखत की हुई फाइलों के अम्बार पड़े हैं, क्योंकि उन्हें ले जाने वाला कालूराम नहीं था। और मैंने भोंपू पर सार्वजनिक रूप से जो वादा किया था कि ‘कालूराम, तुम्हें कोई कुछ नहीं बोलेगा’, उसके बाद ऐसे परिश्रमी सेवक, ऐसे सरकारी तारणहार को मैं चार्जशीट कैसे दे सकता था? सो, मैंने कालूराम से माफी माँग ली।

मंत्री: आप भी कमाल करते हैं सचिव साहब। आपने चपरासी से माफी क्यों माँगी, जबकि गलती उसी की थी?

सचिव: सर, प्रैक्टिकल बात तो यह है कि चपरासी जी को खुश रखना भी तो जरूरी है। अब घंटी तो रही नहीं जिसको चार बार दबाऊँ। अब तो स्वयं ही बाहर जाकर बुलाना है। अगर एक बार में नहीं सुनता, तो कॉरिडोर में कालूराम, कालूराम चिल्लाता मैं कैसा लगूँगा? पता नहीं कहाँ-कहाँ चीख-पुकार मचानी पड़े। क्या इस महान देश के एक सचिव को यह शोभा देगा?

मंत्री: अब मैं समझा कि आप पूरे टाइम अपने चेंबर से गायब क्यों रहते हैं!

सचिव: (थोड़ा तपाक से) लेकिन, चिंता न करें श्रीमान! मैंने इस समस्या का हल ढूँढ लिया है। कालूराम को मैंने अपने कक्ष में ही एक कुर्सी-टेबल दे दिया है। वहीं बैठा रहता है वह, एयरकंडीशनिंग के मजे लेता है, मोबाइल पर जोर-जोर से गाने सुनता है, गप्पें लड़ाता है। कभी-कभी अपने साथी चपरासी भाईयों को इकट्ठा करके मेरे चेंबर में पार्टी भी दे देता है।

मंत्री: फिर आप काम कैसे करते हैं?

सचिव: करता हूँ न, सर! बहुत काम करता हूं सर! ब्रिटिश सामंतवाद को मन-ही-मन गालियां देता हूँ और स्वदेशी समाजवाद तथा समरसता के कसीदे पढ़ता हूँ, पावरपॉइंट प्रेज़ेंटेशन बनाता हूँ। बस ऐसे समय कट जाता है। (फिर धीमें स्वर में) मैं तो दो-तीन महीने में रिटायर हो रहा हूँ, आप अपना देख लीजिये, सर!

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Tuesday, 11 July 2023

Retirement Looming

With my retirement less than a couple of months away I have been contemplating what I would do after that. Some say that I still "have it" in me, so I should work at least another five years. So, do they mean that I will have nothing left in me after 65? 

Some say I should work for as long as I can. Is that 70? Many say that with my expertise (overvalued) I have some kind of a moral duty to give it back. To whom, I ask?


Haven't I given whatever I could? All of us have done that. Especially those working in goverment jobs have given their personal and family lives away for measly salaries. I often regret that I could have given a lot more to my wife and children - time and love, association and hugs. Can I compensate them for that? Too late, I think. 


Then I think, "What the heck! Why should I work any more?" I will get a reasonable above-sustenance pension, medical expenses taken care of, already have a house a flat, not a sarkari palace, though. Why not learn some exotic cooking? Induge in some serious writing?


They talk of the world tour that one should embark upon. Well, that takes a lot more wealth than my pension funds provide for. 


Shouldn't I spend more mornings and evenings with my life partner sipping away cups of tea, she black and I regular. Why not make a trip to my children abroad for a few weeks each and walk my grandchildren (when I have them)?  When will I sit in that rocking chair and flip those photo albums, physical and digital, if not now?


I have played all my cards, or have I? Another ace left?


Still thinking ...

Thursday, 16 March 2023

एक राग दरबारी यह भी

मेरे बचपन का एक साल हाजीपुर में कटा, जहाँ मेरे पिताजी एसडीओ के पद पर कार्यरत थे। वहॉं मेरा एडमिशन एक खंडहरनुमा स्कूल में कराया गया। हाजीपुर एक छोटा शहर था, पर मेरे टाउन मिडिल स्कूल से बेहतर भी कुछ स्कूल थे। पर पता नहीं मेरा एडमिशन वहॉं क्यों कराया गया। वैसे उसी स्कूल ने मुझे नेतरहाट जाने के काबिल बनाया। शायद मेरे पिताजी को ऐसा कुछ अंदाज़ा था।

जब मेरी पोस्टिंग बेला हुई, तो चूँकि हाजीपुर निकट ही था, मैं अपने स्कूल की तलाश करके वहाँ पहुँच गया। ये फोटो काफ़ी कुछ उस काल का ही चित्रण करते हैं। शायद थोड़ा बहुत क्षरण और हो गया हो।

तो, अब बात मेरी गणित की कक्षा की।

एक दिन मैं बिना होमवर्क किये पहुँचा - ज्योमेट्री में कोई आयत बनाना था। अब मैं एसडीओ साहब का सपूत, पर मास्टर साहब को भी ताक़त दिखानी थी। सो मुझे आदेश मिला कि बेंच पर खड़े हो जाओ। अब बेंच पर खड़ा होना बोरे पर खड़े होने से कई गुना ज़्यादा दुखदायी हो सकता है, यह बात तो आप भी मानेंगे। बेंच पर खड़े प्रमादी छात्र की विज़िबिलिटी तो पूरे शहर में हो सकती है।

आनन-फ़ानन में पूरे स्कूल में खबर फैल गई कि एसडीओ साहब के लड़के को बेंच पर खड़ा होने की सजा हो गई है। अब तो मेरे माता-पिता ने मुझे कोई एंटाइटलमेंट सिखाई थी, ना ही मैंने ऐसा कभी सोचा था। जब मैं बेचारा इन सब बातों से बेख़बर बेंच पर खड़ा होने ही वाला था कि हेडमास्टर साहेब मेरी क्लास के दरवाज़े पर खड़े हुए। पूछा क्या बात है।

गणित के मास्टर तमतमा गये। बोले कि लड़के को तो बेंच पर खड़ा होना ही पड़ेगा, एसडीओ का पुत्र है तो क्या। हेडमास्टर साहब ने कुछ समझाने की कोशिश की पर गणित के मास्टर साहेब ने उन्हें सबके सामने कह दिया कि आप डरते हैं। इन सबके बीच मैं अबोध बालक समझ नहीं पा रहा था कि बेंच पर ही तो खड़ा होना है, इसमें इतना बतंगड़ क्यों - आख़िर मैंने होमवर्क तो नहीं किया है ना।

पर हेडमास्टर साहेब ने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली थीं - बिलकुल श्रीलाल शुक्ल के कथानक के हेडमास्टर थे। बोले मैं इस लड़के को अपने ऑफिस में ले जा रहा हूँ, वहीं सजा दूँगा। गणित के मास्टर साहब ओवररूल हो गये। फिर हेडमास्टर साहेब मुझे अपने कमरे में ले गये और कॉपी में होमवर्क वाला आयत बनवाया। फिर एक विजयी योद्धा की भाँति मुझे लेकर क्लास में गये और गणित के मास्टर साहेब से बोले - लीजिये हो गया आपका होमवर्क। मानों मास्टर साहेब को ही कोई होमवर्क मिला हो, जो पूरा हो गया।

आज ये कहानी बताते हुए हँसी आती है, पर उस वक्त ये पूरा अनुभव कटु ही रहा था जब एक बेचारे अबोध बालक की मामूली गलती के ऊपर राग दरबारी का सारा नाटक रचा गया था।